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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1774
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
1

आ꣢꣯ यः पुरं꣣ ना꣡र्मि꣢णी꣣म꣡दी꣢दे꣣द꣡त्यः꣢ क꣣वि꣡र्न꣢भ꣣न्यो꣢३ ना꣡र्वा꣢ । सू꣢रो꣣ न꣡ रु꣢रु꣣क्वा꣢ञ्छ꣣ता꣡त्मा꣢ ॥१७७४॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । यः । पु꣡र꣢꣯म् । ना꣡र्मि꣢꣯णीम् । अ꣡दी꣢꣯देत् । अ꣡त्यः꣢꣯ । क꣣विः꣢ । न꣣भन्यः꣢ । न । अ꣡र्वा꣢꣯ । सू꣡रः꣢꣯ । न । रु꣣रुक्वा꣢न् । श꣣ता꣡त्मा꣢ । श꣣त꣢ । आ꣣त्मा ॥१७७४॥


स्वर रहित मन्त्र

आ यः पुरं नार्मिणीमदीदेदत्यः कविर्नभन्यो३ नार्वा । सूरो न रुरुक्वाञ्छतात्मा ॥१७७४॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । यः । पुरम् । नार्मिणीम् । अदीदेत् । अत्यः । कविः । नभन्यः । न । अर्वा । सूरः । न । रुरुक्वान् । शतात्मा । शत । आत्मा ॥१७७४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1774
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र में ‘शतात्मा' का उल्लेख है— जो केवल अपने को ही 'मैं' नहीं समझता अपितु सभी में आत्मबुद्धि करके जो अनन्त आत्माओंवाला हो गया है—(“अयुतोऽहं सर्वः") = मैं औरों से पृथक् थोड़े ही हूँ (‘अयुतो म आत्मा') = मेरा आत्मा औरों से अपृथक् है, ऐसा ही यह सदा चिन्तन करता है। इसका चित्रण निम्न शब्दों में हुआ है

१. (यः) = जो (नार्मिणीम्) = क्रीड़ाओं की स्थली sport, pastimes बनी इस (पुरम्) = शरीररूप पुरी को (आ अदीदेत्) = समन्तात् दीप्त करता है, न मन में, न बुद्धि में ही मलिनता रहने देता है। यह शतात्मा ज्ञान की ज्योति से मस्तिष्क को उज्ज्वल करता है और मन को पवित्र करता है ।

२. (अत्यः) = [अत् सातत्यगमने] यह निरन्तर गमन में लगा रहता है— सतत क्रियाशील होता है । यह कभी अकर्मण्य नहीं होता ।

३. (कविः) = यह क्रान्तदर्शी है – वस्तुओं के स्वरूप व तत्त्व को जानने का प्रयत्न करता हैउनकी आपात रमणीयता में नहीं उलझ जाता ।

४. (नभन्यः) = यह आकाश का होता है- पार्थिव नहीं, अर्थात् यह लक्ष्य की दृष्टि से एक ऊँची उड़ान लेता है, पार्थिव भोगों में नहीं फँसा रहता ।

५. (न अर्वा) = पार्थिव भोगों में न फँसा होने के कारण ही यह हिंसा की वृत्तिवाला नहीं होता [अर्व हिंसायाम्] । यह औरों का घातपात करके अपने भोगों को बढ़ाए, इसकी ऐसी वृत्ति कभी नहीं होती ।

६. (सूरो न रुरुक्वान्) = हिंसा की वृत्ति से ऊपर उठने का ही यह परिणाम होता है कि यह निरन्तर सूर्य की भाँति चमकता है। प्रभु ‘आदित्यवर्ण' हैं—यह प्रभु के समीप पहुँचता हुआ उनजैसा ही बनता चलता है ।

७. (शतात्मा) = और अन्त में यह 'शतात्मा' बन जाता है। सबमें एकत्व देखता हुआ यह अनेक हो जाता है। इसका सब मोह=अज्ञानान्धकार-तम दूर हो चुका है, इसी से यह 'दीर्घतमा' नामवाला हो गया है।

भावार्थ -

मैं शतात्मा बनूँ ।

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