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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1782
ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
3
वि꣣धुं꣡ द꣢द्रा꣣ण꣡ꣳ सम꣢꣯ने बहू꣣नां꣢ युवा꣢꣯न꣣ꣳ स꣡न्तं꣢ पलि꣣तो꣡ ज꣢गार । दे꣣व꣡स्य꣢ पश्य꣣ का꣡व्यं꣢ महि꣣त्वा꣢꣫द्या म꣣मा꣢र꣣ स꣡ ह्यः समा꣢꣯न ॥१७८२॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣धु꣢म् । वि꣢ । धु꣢म् । द꣣द्राण꣢म् । स꣡म꣢꣯ने । सम् । अ꣣ने । बहूना꣢म् । यु꣡वा꣢꣯नम् । स꣡न्त꣢꣯म् । प꣣लितः꣢ । ज꣣गार । देव꣡स्य꣢ । प꣣श्य । का꣡व्य꣢꣯म् । म꣣हित्वा꣢ । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । म꣣मा꣡र꣢ । सः । ह्यः । सम् । आ꣣न ॥१७८२॥
स्वर रहित मन्त्र
विधुं दद्राणꣳ समने बहूनां युवानꣳ सन्तं पलितो जगार । देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ॥१७८२॥
स्वर रहित पद पाठ
विधुम् । वि । धुम् । दद्राणम् । समने । सम् । अने । बहूनाम् । युवानम् । सन्तम् । पलितः । जगार । देवस्य । पश्य । काव्यम् । महित्वा । अद्य । अ । द्य । ममार । सः । ह्यः । सम् । आन ॥१७८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1782
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - अनासक्ति के लिए नश्वरता का चिन्तन
पदार्थ -
संसार का संसरण भी खूब है! १. एक बच्चा (विधुम्) = चन्द्रमा के समान सुन्दर ही सुन्दर होता है, २. .ज़रा बड़ा होता है और (बहूनां समने दद्राणम्) = माता पिता व घरवालों की उत्कण्ठा के निमित्त विविध ‘बाल-लीलाओं' का करनेवाला होता है । ३. तनिक और बड़ा होता है और (युवानं सन्तम्युवा) = ‘भरपूर नौजवान' होकर कितने ही व्यक्तियों की उत्कण्ठा का कारण बनता है, ४. परन्तु कुछ ही देर बाद इसे (पलितः जगार) = वार्धक्य की सफ़ेदी निगलने लगती है— इसके बाल सफ़ेद हो जाते हैं । ५. अब अत्यन्त वृद्ध होकर यह बड़ी दयनीय अवस्था में पहुँच जाता है। इस समय तनिक (महित्वा) = श्रद्धा की भावना से हम देखें तो सचमुच (देवस्य काव्यं पश्य) = यह प्रभु का कितना सुन्दर वर्णनीय कार्य है कि (अद्य ममार) = आज वह समाप्त हो जाता है (स ह्यः समान) = जोकि कल बड़ा अच्छा-भला था।
इस प्रकार जीवन का यह विचित्र-सा क्रम है— उत्पत्ति, बाल्यकाल, यौवन, वार्धक्य व समाप्ति । इस प्रकार यह संसार निरन्तर संसरण कर रहा है – इसमें कुछ भी स्थिर नहीं । इस नश्वरता का चिन्तन मनुष्य को संसार में आसक्त होने से बचाता है । यह इन्द्रिय-विषयों में आसक्त न होनेवाला सचमुच ‘इन्द्र' बनता है और उस प्रभु के स्तोत्रों का गायन करनेवाला होने से 'बृहदुक्थ' कहलाता है।
भावार्थ -
मैं संसार के स्वरूप का चिन्तन करूँ और इसमें आसक्त न होकर प्रभु का उपासक बनूँ।
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