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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1799
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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न꣢ ते꣣ गि꣢रो꣣ अ꣡पि꣢ मृष्ये तु꣣र꣢स्य꣣ न꣡ सु꣢ष्टु꣣ति꣡म꣢सु꣣꣬र्य꣢꣯स्य वि꣣द्वा꣢न् । स꣡दा꣢ ते꣣ ना꣡म꣢ स्वयशो विवक्मि ॥१७९९॥

स्वर सहित पद पाठ

न । ते꣣ । गि꣡रः꣢꣯ । अ꣡पि꣢꣯ । मृ꣣ष्ये । तुर꣡स्य꣢ । न । सु꣣ष्टुति꣢म् । सु꣣ । स्तुति꣢म् । अ꣣सुर्य꣢स्य । अ꣣ । सुर्यस्य । वि꣣द्वा꣢न् । स꣡दा꣢꣯ । ते꣣ । ना꣡म꣢꣯ । स्वय꣣शः । स्व । यशः । विवक्मि ॥१७९९॥


स्वर रहित मन्त्र

न ते गिरो अपि मृष्ये तुरस्य न सुष्टुतिमसुर्यस्य विद्वान् । सदा ते नाम स्वयशो विवक्मि ॥१७९९॥


स्वर रहित पद पाठ

न । ते । गिरः । अपि । मृष्ये । तुरस्य । न । सुष्टुतिम् । सु । स्तुतिम् । असुर्यस्य । अ । सुर्यस्य । विद्वान् । सदा । ते । नाम । स्वयशः । स्व । यशः । विवक्मि ॥१७९९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1799
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

वसिष्ठ कहता है—१. (तुरस्य) = सब दुरितों के हिंसक प्रभो ! मैं (ते) = तेरी (गिरः) = वेदवाणियों को (न) = नहीं (अपिमृष्ये) = [मृष्=forget, neglect] भूलता और न उपेक्षित करता हूँ । वसिष्ठ का तो निश्चय है कि (‘मन्त्रश्रुत्यं चरामसि') = जैसे प्रभु की मन्त्रात्मक वाणियों में हम सुनते हैं - वैसा ही करते हैं। श्रुति ही तो धर्म के लिए परम प्रमाण है । जैसा प्रभु कहते हैं— वैसा ही मैं करता हूँ । दुरित मेरे पास आ ही कैसे सकते हैं ? दुरितों का तो वे प्रभु ध्वंस करनेवाले हैं। ।

२. हे प्रभो ! (विद्वान्) = समझदार बनता हुआ मैं (असुर्यस्य) = [असुं राति] प्राणशक्ति को देनेवालों में सर्वोत्तम आपकी (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति को (न) [मृष्ये ]= नहीं भूलता हूँ। आपकी स्तुति-कर्म में मैं कभी उपेक्षा नहीं करता। आपके सम्पर्क में रहने से तो मैं अपने में शक्ति को अनुभव करता हूँ । आपका सम्पर्क छूटा, और स्रोत से पृथक् हुई नदी की भाँति मेरा भी शक्तिजल सूखा । इसलिए ३. हे प्रभो ! (सदा) = हमेशा ही मैं (ते) = आपके (स्वयशः) = स्वयं आत्मना यशवाले (नाम) = नाम का (विवक्मि) = विशेषरूप से उच्चारण करता हूँ। मैं सदा आपके स्वरूप को इस रूप में स्मरण करने का प्रयत्न करता हूँ कि आप किसी और के कारण यशवाले नहीं हैं—आपका यश आपके अपने कर्मों से हैं। मैं भी इस नाम का निरन्तर उच्चारण करता हुआ प्रयत्न करता हूँ कि ऐसे कर्म करूँ जिनसे यश का भागी बनूँ ।

भावार्थ -

१. मेरे कर्म वेदाज्ञानुसार हों, २. प्रभु की स्तुति द्वारा मैं प्रभु से अपना सम्बन्ध विच्छिन्न न होने दूँ, ३. प्रभु के 'स्वयशः' इस नाम का उच्चारण करता हुआ मैं भी 'स्वयशः' बनने के लिए यशस्वी कर्मों को करूँ ।
 

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