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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 180
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣢꣯न्द्रेहि꣣ म꣡त्स्यन्ध꣢꣯सो꣡ वि꣡श्वे꣢भिः सोम꣣प꣡र्व꣢भिः । म꣣हा꣡ꣳ अ꣢भि꣣ष्टि꣡रोज꣢꣯सा ॥१८०॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯ । आ । इ꣣हि । म꣡त्सि꣢꣯ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । वि꣡श्वे꣢꣯भिः । सो꣣म꣡पर्व꣢भिः । सो꣣म । प꣡र्व꣢꣯भिः । म꣣हा꣢न् । अ꣣भिष्टिः꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥१८०॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः । महाꣳ अभिष्टिरोजसा ॥१८०॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्र । आ । इहि । मत्सि । अन्धसः । विश्वेभिः । सोमपर्वभिः । सोम । पर्वभिः । महान् । अभिष्टिः । ओजसा ॥१८०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 180
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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विषय - गतिशील बन
पदार्थ -
इस मन्त्र का ऋषि ‘मधुछन्दा वैश्वामित्रः' है- उत्तम इच्छाओंवाला- सबके साथ स्नेह करनेवाला। यह ऐसा बन सके, अतः प्रभु इससे कहते हैं कि (इन्द्र) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनकर अपने ‘इन्द्र' नाम को चरितार्थ करनेवाले हे जीव! तू (इहि) = गतिशील बन, सदा क्रियामय जीवनवाला बन । क्रिया तेरे लिए स्वाभाविक हो जाए। इस क्रियामय जीवन के परिणाम स्वरूप ही तू (अन्धसः) = सोम के - वीर्य के (मत्सि) = मद - हर्ष को प्राप्त करनेवाला बन। आध्यायनीय–सर्वथा ध्यान देने योग्य होने के कारण सोम का नाम अन्धस् है। इस सोम के शरीर में रक्षण से एक अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है। क्रियाशीलता इस सोम की रक्षा
में सहायक होती है। क्रियाशील मनुष्य पर वासनाओं का आक्रमण होता ही नहीं और उसका सोम वासनाग्नि से प्रतप्त होकर शरीर से पृथक् नहीं होता। यह मधुछन्दा मधुर, सात्त्विक भोजनों का सेवन करके शरीर में सोम का उत्पादन करता है और (विश्वेभिः सोमपर्वभिः) = सोम का शरीर में सब प्रकार से पूरण करने से (महान्) = महनीय बनता है - महत्ता को प्राप्त करता है। विश्व शब्द का अर्थ 'सब' भी है और विश्व की भावना शरीर में ही व्याप्त हो जाना–प्रविष्ट हो जाना भी है। सात्त्विक सोम वासनाग्नि से प्रतप्त नहीं होता तो शरीर में ही व्याप्त हो जाता है। पृ=धातु पूरण=भरना अर्थ की वाचक है। इस प्रकार जब सोम का शरीर में भरण होता है तो यह सोम मनुष्य को महान् बनाता है। वीर्य - रक्षा करनेवाला पुरुष ही कोई महान् कार्य कर पाता है। यह वीर्य उसे अनथक श्रम करने की शक्ति देता है।
एवं, शक्तिशाली बनकर (ओजसा) = अपने ओज से वह मधुच्छन्दा (अभिष्टिः) = बुराई पर आक्रमण करनेवाला होता है [अभिष्ट:=to attack]। उत्तम कार्यों में शक्ति का विनियोग करके यह महान् बनता है। इसकी शक्ति औरों की रक्षा करनेवाली होती है।
भावार्थ -
हम गतिशीलता के द्वारा शक्ति का शरीर में ही भरण करें और महान् बनें।
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