Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1816
ऋषिः - अग्निः पावकः
देवता - अग्निः
छन्दः - विष्टारपङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
अ꣢ग्ने꣣ त꣢व꣣ श्र꣢वो꣣ व꣢यो꣣ म꣡हि꣢ भ्राजन्ते अ꣣र्च꣡यो꣢ विभावसो । बृ꣡ह꣢द्भानो꣣ श꣡व꣢सा꣣ वा꣡ज꣢मु꣣क्थ्य꣢ꣳ३ द꣡धा꣢सि दा꣣शु꣡षे꣢ कवे ॥१८१६॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢꣯ । त꣡व꣢꣯ । श्र꣡वः꣢꣯ । व꣡यः꣢꣯ । म꣡हि꣢꣯ । भ्रा꣣जन्ते । अर्च꣡यः꣢ । वि꣣भावसो । विभा । वसो । बृ꣡ह꣢꣯द्भानो । बृ꣡ह꣢꣯त् । भा꣣नो । श꣡व꣢꣯सा । वा꣡ज꣢꣯म् । उ꣣क्थ्य꣢म् । द꣡धा꣢꣯सि । दा꣣शु꣡षे꣢ । क꣣वे ॥१८१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो । बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थ्यꣳ३ दधासि दाशुषे कवे ॥१८१६॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । तव । श्रवः । वयः । महि । भ्राजन्ते । अर्चयः । विभावसो । विभा । वसो । बृहद्भानो । बृहत् । भानो । शवसा । वाजम् । उक्थ्यम् । दधासि । दाशुषे । कवे ॥१८१६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1816
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - ज्ञान-कर्म-उपासना
पदार्थ -
प्रभु प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘अग्नि-पावक' से, जिसने अपने जीवन को उन्नतिशील व पवित्र बनाया है, कहते हैं— हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! हे (विभावसो) = ज्ञान को ही वास्तविक धन समझनेवाले जीव ! (तव) = तेरे (श्रवः) = श्रवणसाध्य ज्ञान (वयः) = गतिरूप कर्म [वय=गतौ] तथा (अर्चय:) = [अर्च=पूजायाम्] उपासनाएँ (महि भ्राजन्ते) = खूब दीप्त होती हैं। अग्नि-प्रगतिशील जीव सदा अपने ज्ञान को बढ़ाने के दृष्टिकोण से ही क्रियाशील रहता है और इस प्रकार ज्ञान के साथ कर्मों को करता हुआ प्रभु का सच्चा उपासक बनता है । इसके 'ज्ञान, कर्म व अर्चन' सभी खूब चमकनेवाले– देदीप्यमान होते हैं । परन्तु यह अग्नि=प्रगतिशील जीव इस प्रकार उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता हुआ भी पावक
पवित्र बना रहता है। किसी प्रकार गर्व की भावना को अपने अन्दर उत्पन्न नहीं होने देता । यह प्रभु की अर्चना इन शब्दों में करता है—
हे (बृहद्भानो )= अत्यन्त बढ़े हुए - निरतिशय प्रकाशवाले प्रभो! हे (कवे) = क्रान्तदर्शिन्– अन्तर्यामितया सब वस्तुओं के तत्त्व को जाननेवाले प्रभो! आप ही तो (दाशुषे) = आपके प्रति समर्पण करनेवाले जीव के लिए (शवसा) = [शवतिः गतिकर्मा] गति व क्रिया के साथ (वाजम्) = [वज गतौ, गतिः–ज्ञानम्] ज्ञान को तथा (उक्थ्यम्) = स्तोत्रों में साधुता को–अर्थात् उत्तम उपासना-वृत्ति को (दधासि) = धारण करते हैं। आपकी कृपा से ही तो 'क्रियाशीलता, ज्ञान व उपासना की वृत्ति' प्राप्त होती है। यह सब तो आपकी ही देन है [ These are the blsessing bestowed upon us by Thee], इसमें हमारा तो कुछ है ही नहीं ।
इस प्रकार निरहंकारता व सौम्यता के साथ इस अग्नि के 'कर्म, ज्ञान व उपासना' और भी अधिक चमक उठते हैं— उसका जीवन सुतरां पवित्र बन जाता है । वह दिव्यता को प्राप्त कर दिव्यता के दर्प से अभिभूत नहीं हो जाता और इस प्रकार उसकी दिव्यता और अधिक दिव्य बन जाती है ।
भावार्थ -
मैं ज्ञानी बनूँ, ज्ञानपूर्वक कर्म करूँ और इन कर्मों को प्रभु चरणों में अर्पित करता हुआ प्रभु का सच्चा उपासक होऊँ।