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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1817
ऋषिः - अग्निः पावकः देवता - अग्निः छन्दः - विष्टारपङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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पा꣣वक꣡व꣢र्चाः शु꣣क्र꣡व꣢र्चा꣣ अ꣡नू꣢नवर्चा꣣ उ꣡दि꣢यर्षि भा꣣नु꣡ना꣢ । पु꣣त्रो꣢ मा꣣त꣡रा꣢ वि꣣च꣢र꣣न्नु꣡पा꣢वसि पृ꣣ण꣢क्षि꣣ रो꣡द꣢सी उ꣣भे꣢ ॥१८१७॥

स्वर सहित पद पाठ

पावक꣡व꣢र्चाः । पा꣣वक꣢ । व꣣र्चाः । शुक्र꣡व꣢र्चाः । शु꣣क्र꣢ । व꣣र्चाः । अ꣡नू꣢꣯नवर्चाः । अ꣡नू꣢꣯न । व꣣र्चाः । उ꣣त् । इ꣣यर्षि । भानु꣡ना꣢ । पु꣣त्रः꣢ । पु꣣त् । त्रः꣢ । मा꣣त꣡रा꣢ । वि꣣च꣡र꣢न् । वि꣣ । च꣡र꣢꣯न् । उ꣡प꣢꣯ । अ꣣वसि । पृण꣡क्षि꣢ । रो꣡द꣢꣯सीइ꣡ति꣢ । उ꣣भे꣡इति꣢ ॥१८१७॥


स्वर रहित मन्त्र

पावकवर्चाः शुक्रवर्चा अनूनवर्चा उदियर्षि भानुना । पुत्रो मातरा विचरन्नुपावसि पृणक्षि रोदसी उभे ॥१८१७॥


स्वर रहित पद पाठ

पावकवर्चाः । पावक । वर्चाः । शुक्रवर्चाः । शुक्र । वर्चाः । अनूनवर्चाः । अनून । वर्चाः । उत् । इयर्षि । भानुना । पुत्रः । पुत् । त्रः । मातरा । विचरन् । वि । चरन् । उप । अवसि । पृणक्षि । रोदसीइति । उभेइति ॥१८१७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1817
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

'अग्नि-पावक'=प्रगतिशील - पवित्र जीव से ही प्रभु कहते हैं— ३

(पावकवर्चा:) = तू पवित्र करनेवाली तेजस्वितावाला है । वस्तुत: 'वर्चस्' शरीर में सब प्रकार के रोगकृमियों को समाप्त करता हुआ शरीर को अत्यन्त निर्मल बनाता है और मन को भी द्वेषादि मलों से मलिन नहीं होने देता । (शुक्रवर्चा:) = [शुक् गतौ] तू गतिशील तेजस्वितावाला है, तेरी तेजस्विता तुझे सदा क्रियामय बनाये रखती है। इस प्रकार तू (अनूनवर्चा:) = न्यूनता को उत्पन्न न होने देनीवाली तेजस्वितावाला है। तेज के दो ही कार्य हैं- १. प्रथम मल को दूर करके पवित्र बनाना और २. सब प्रकार की रुकावटों को दूर करके गतिशील बनाना । इन दोनों बातों के होने पर मनुष्य में न्यूनता नहीं आती।

प्रभु कहते हैं कि 'पावक, शुक्र व अनूनवर्चस्वाला' होता हुआ तू (भानुना) = ज्ञान की दीप्ति से (उत् इयर्षि) = ऊर्ध्वगतिवाला होता है। तेजस्विता व ज्ञान का प्रकाश – दोनों मिलकर तुझे उन्नत करनेवाले होते हैं ।

(पुत्र:) = तू पुत्र है, (मातरा) = अपने माता-पिता – द्युलोक व पृथिवीलोक के अनुकूल (विचरन्) = गति करता हुआ, (उपावसि) =उनसे अपने को दूर न ले जाता हुआ तू [उप] अपनी रक्षा करता है [अवसि]। द्यौष्पिता, पृथिवीमाता इन मन्त्रांशों से यह स्पष्ट है कि द्युलोक पिता है और पृथिवी माता है तथा जीव उनका पुत्र है। उनके अनुकूल चलता हुआ यह अपने को पु - पवित्र बनाता है, और त्रअपना त्राण करता है।‘द्यौः उग्रा, पृथिवी च दृढा' द्युलोक सूर्य व सितारों से तेजस्वी है - यह भी अपने को ज्ञान से तेजस्वी बनाता है । पृथिवी दृढ़ है - यह भी अपने शरीर को शक्तिशाली बनाता है। अपने को ऐसा बनाने के लिए ही यह उप=उनके समीप रहता है । इसका जीवन कृत्रिम नहीं हो जाता, अपितु स्वाभाविक बना रहता है । भोजनाच्छादनादि में यह बहुत बखेड़ा नहीं करता, भोजनों को अधिक पकाता नहीं रहता, वस्त्रों की संख्या को बढ़ाता नहीं रहता । वस्तुत: 'पवित्रता व दीर्घजीवन का रहस्य' प्रकृति के समीप बने रहना ही है [उप] । आधुनिक युग में तथाकथित सभ्यता के विकास में जीव प्रकृति से सुदूर चला गया और कुछ कटु अनुभवों से उसने फिर [प्रकृति की ओर लौटने] 'Back to the Nature' का नारा लगाया।

वस्तुतः जीव अपने माता-पिता पृथिवीलोक व द्युलोक के समीप रहता हुआ ही उभे-दोनों (रोदसी) = लोकों का - - द्यावापृथिवी का (पृणक्षि) = पालन करता है । पिण्ड में शरीर ही पृथिवीलोक है तथा मस्तिष्क द्युलोक । जब हम अपने जीवन को प्रकृति से दूर व अस्वाभाविक नहीं बनने देते तब वस्तुत: अपने शरीर व मस्तिष्क को स्वस्थ, सुरक्षित व सुन्दर बनाये रखते हैं । अस्वाभाविकता ही हमें बीमार व कुण्ठमति बना देती है ।

भावार्थ -

मैं शारीरिक तेजस्विता व मस्तिष्क दीप्ति प्राप्त करके उन्नत होऊँ । यथासम्भव स्वाभाविक जीवन बिताता हुआ स्वस्थ व सूक्ष्मबुद्धिवाला रहूँ ।
 

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