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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1823
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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त꣡व꣢ द्र꣣प्सो꣡ नील꣢꣯वान्वा꣣श꣢ ऋ꣣त्वि꣢य꣣ इ꣡न्धा꣢नः सिष्ण꣣वा꣡ द꣢दे । त्वं꣢ म꣣ही꣡ना꣢मु꣣ष꣡सा꣢मसि प्रि꣣यः꣢ क्ष꣣पो꣡ वस्तु꣢꣯षु राजसि ॥१८२३॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣡व꣢꣯ । द्र꣣प्सः꣢ । नी꣡ल꣢꣯वान् । वा꣣शः꣢ । ऋ꣣त्वि꣡यः꣢ । इ꣡न्धा꣢꣯नः । सि꣣ष्णो । आ꣢ । द꣣दे । त्व꣢म् । म꣣ही꣡ना꣢म् । उ꣣ष꣡सा꣢म् । अ꣣सि । प्रियः꣢ । क्ष꣣पः꣢ । व꣡स्तु꣢꣯षु । रा꣣जसि ॥१८२३॥


स्वर रहित मन्त्र

तव द्रप्सो नीलवान्वाश ऋत्विय इन्धानः सिष्णवा ददे । त्वं महीनामुषसामसि प्रियः क्षपो वस्तुषु राजसि ॥१८२३॥


स्वर रहित पद पाठ

तव । द्रप्सः । नीलवान् । वाशः । ऋत्वियः । इन्धानः । सिष्णो । आ । ददे । त्वम् । महीनाम् । उषसाम् । असि । प्रियः । क्षपः । वस्तुषु । राजसि ॥१८२३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1823
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

ये प्रभु ‘सिष्णु' हैं— अपनी ज्योति के प्रकाश से हमें बाँधनेवाले हैं। एक विचारक प्रभु की महिमा का अनुभव करता है और उस ओर आकृष्ट होता है। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि हे (सिष्णो) = अपने में बाँधनेवाले प्रभो ! (तव) = आपका (द्रप्सः) = ज्योतिष्कण [spark] (नीलवान्) = शुभ उद्घोषणावाला है [नील – An auspicious proclaimation] । यदि मैं प्रभु की ज्योति को देखता हूँ तो यह मेरे जीवन के शुभ के लिए सुन्दर घोषणा है । (वाशा:) = यह एक पुकार है, यह ज्योतिष्कण मुझे प्रभु की ओर चलने के लिए पुकार रहा है । (ऋत्वियः) = यह पुकार समय-समय पर होनेवाली है।

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि सोभरि कहता है कि (इन्धानः) = अपने अन्दर ज्ञान को दीप्त करता हुआ मैं (आददे) = इस ज्योतिष्कण को ग्रहण करता हूँ । प्रभु का जो प्रकाश, विद्युत् चमक की भाँति मुझे दिखता है, मैं उसे पकड़ने की कोशिश करता हूँ। इसी उद्देश्य से हे प्रभो ! (महीनाम्) = [मह पूजायाम् ] पूजा के लिए उचिततम (उषसाम्) = उष:कालों में तो (त्वम्) = आप (प्रियः असि) = मुझे प्रिय हैं ही, उष:कालों में तो मैं आपका स्मरण करता ही हूँ आप तो (क्षपो वस्तुषु) = रात्रि और दिन के [वस्तु –day] सब कालों में (राजसि) = मेरे जीवन में चमकते हो, अर्थात् मैं सदा आपका ध्यान करने का प्रयत्न करता हूँ ।

प्रभु की चमक कभी-कभी तो सभी को दिखती ही है, प्रयत्न यह करना चाहिए कि हम उस चमक को पकड़नेवाले बनें – वह चमक हमें विस्मृत न हो जाए । यह प्रकाश तो 'वाश' हैपुकार-पुकार कर हमारे कर्त्तव्य का हमें स्मरण करा रहा है । यह ऋत्वियः = उस उस समय के ठीक अनुकूल होता है। इसका ग्रहण करना ही एक पुजारि का सच्चा कर्त्तव्य है। मैं उष:कालों में क्या दिन-रात प्रभु का स्मरण करूँ और उसके प्रकाश को देखूँ तथा उस उस काल में होनेवाली पुकार को सुनूँ ।

भावार्थ -

हमारे जीवन में प्रभु की ज्योति चमके, उसके न चमकने पर हमारा जीवन अन्धकारमय हो जाता है ।

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