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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1824
ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
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त꣡मो꣢꣯षधीर्दधिरे꣣ ग꣡र्भ꣢मृ꣣त्वि꣢यं꣣ त꣡मापो꣢꣯ अ꣣ग्निं꣡ ज꣢नयन्त मा꣣त꣡रः꣢ । त꣡मित्स꣢꣯मा꣣नं꣢ व꣣नि꣡न꣢श्च वी꣣रु꣢धो꣣ऽन्त꣡र्व꣢तीश्च꣣ सु꣡व꣢ते च वि꣣श्व꣡हा꣢ ॥१८२४॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣢म् । ओ꣡ष꣢꣯धीः । ओ꣡ष꣢꣯ । धीः꣣ । दधिरे । ग꣡र्भ꣢꣯म् । ऋ꣣त्वि꣡य꣢म् । तम् । आ꣡पः꣢꣯ । अ꣣ग्नि꣢म् । ज꣣नयन्त । मात꣡रः꣢ । तम् । इत् । स꣣मान꣢म् । स꣣म् । आन꣣म् । व꣣नि꣡नः꣢ । च꣣ । वीरु꣡धः꣢ । अ꣣न्त꣡र्व꣢तीः । च꣣ । सु꣡व꣢꣯ते । च꣣ । विश्व꣡हा꣢ । वि꣡श्व꣢ । हा꣣ ॥१८२४॥


स्वर रहित मन्त्र

तमोषधीर्दधिरे गर्भमृत्वियं तमापो अग्निं जनयन्त मातरः । तमित्समानं वनिनश्च वीरुधोऽन्तर्वतीश्च सुवते च विश्वहा ॥१८२४॥


स्वर रहित पद पाठ

तम् । ओषधीः । ओष । धीः । दधिरे । गर्भम् । ऋत्वियम् । तम् । आपः । अग्निम् । जनयन्त । मातरः । तम् । इत् । समानम् । सम् । आनम् । वनिनः । च । वीरुधः । अन्तर्वतीः । च । सुवते । च । विश्वहा । विश्व । हा ॥१८२४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1824
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'अरुण' है जो निरन्तर गतिशील [ऋ गतौ ] है । यह संसार में सर्वत्र उस प्रभु की महिमा को देखता हुआ कहता है कि — (ओषधी:) = ओषधियाँ (तम्) = उस (ऋत्वियं गर्भम्) = समय पर होनेवाले गर्भ को (दधिरे) = क्या धारण करती हैं, ये तो (अग्निं दधिरे) = उस प्रभुरूप अग्नि को ही धारण करती हैं। (मातरः आपः) = मूलकारण होने से मातृरूप जल (तम् अग्निं जनयन्त) = उस अग्निरूप प्रभु को प्रकट कर रहे हैं। जलों में रस वे प्रभु ही तो हैं । (तम् च) = और उस (समानम्) = सम्यक् प्राणित करनेवाले प्रभु को ही (वनिन:) = वन के बड़े-बड़े वृक्ष प्रकट करते हैं । इन उत्तुङ्ग को देखकर किसको उस प्रभु की महिमा का स्मरण नहीं होता ? (अन्तर्वती:) = गर्भवाली (वीरुधः) = फैलनेवाली बेलें भी (विश्वहा) = सदा (सुवते) = उसी प्रभु-महिमा की भावना को जन्म देती हैं। इन फैलनेवाली लताओं में भी उस प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है। सारा वानस्पतिक जगत् प्रभु का स्मरण कराता है। इसमें जल के नीचे से ऊपर की ओर जाने की प्रक्रिया ही एक अद्भुत रचना है। जल स्वयं एक विचित्र वस्तु है, जो ठण्डक के साथ अन्य वस्तुओं की भाँति सिकुड़ते जाते हैं, परन्तु ४ अंश पर आकर फिर फैलने लग जाते हैं – मछलियों के जीवन के लिए यह नितान्त आवश्यक भी तो था !

जब मनुष्य अरुण= निरन्तर गतिशील बनता है तब लोकत्रयी में भ्रमण करता हुआ प्रभु की महिमा को देखता है । ('परि द्यावापृथिवी सद्य इत्त्वा', 'परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वा: प्रदिशो दिशश्च') इन मन्त्रभागों में सर्वत्र भ्रमण करते हुए प्रभु की महिमा को देखने का स्पष्ट विधान है। ‘अमाजू: '= घर में ही जीर्ण होनेवाला व्यक्ति प्रभु की महिमा को नहीं देख पाता ।

भावार्थ -

मैं अरुण बनूँ, सर्वत्र विचरता हुआ प्रभु की महिमा को देखूँ ।

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