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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1834
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
य꣡दि꣢न्द्रा꣣हं꣢꣫ यथा꣣ त्वमीशी꣢꣯य꣣ व꣢स्व꣣ ए꣢क꣢ इ꣢त् । स्तो꣣ता꣢ मे꣣ गो꣡स꣢खा स्यात् ॥१८३४॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । इ꣣न्द्र । अ꣣ह꣢म् । य꣡था꣢꣯ । त्वम् । ई꣡शी꣢꣯य । व꣡स्वः꣢꣯ । ए꣡कः꣢꣯ । इत् । स्तो꣣ता꣢ । मे꣣ । गो꣡स꣢꣯खा । गो । स꣣खा । स्यात् ॥१८३४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्राहं यथा त्वमीशीय वस्व एक इत् । स्तोता मे गोसखा स्यात् ॥१८३४॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । इन्द्र । अहम् । यथा । त्वम् । ईशीय । वस्वः । एकः । इत् । स्तोता । मे । गोसखा । गो । सखा । स्यात् ॥१८३४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1834
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - वेदरूपी गौ का चित्र
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘गोषूक्ति व अश्वसूक्ति' है, जिसकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ सदा उत्तम ही कथन करती हैं, अर्थात् इसके ज्ञान व कर्म दोनों ही पवित्र होते हैं । यह वेदज्ञान को प्राप्त करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करता है, परन्तु जब एक लम्बे समय तक उसे 'अन्दर का प्रकाश' प्राप्त नहीं होता तब यह प्रभु को इन शब्दों में उपालम्भ देता है – हे (इन्द्र) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले प्रभो! (यत्) = यदि (अहम्) = मैं (यथा त्वम्) = तेरी भाँति (वस्वः) = इस ज्ञान - धन का (ईशीय) = स्वामी होता तो मे (स्तोता) = मेरा भक्त (गोसखा स्यात्) = वेदवाणियों का मित्र बन चुकता । तूने मुझे वेदज्ञान देने के लिए किसी से पूछना थोड़ा ही है ('एक इत्') = आप तो एकेले ही इसके स्वामी हो। मैं आपका भक्त इस ज्ञान के बिना तरसता रह जाऊँ, यह क्या आपको शोभा देता है ?
उल्लिखित प्रकार से उपालम्भ वही व्यक्ति दे सकता है जो इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रबल इच्छा रखता हो और जिसने पूर्ण प्रयत्न किया हो । प्रबल इच्छा और पूर्ण प्रयत्न के उपरान्त ही यह उपालम्भ शोभा देता है। इनके अभाव में उपालम्भ का मतलब ही क्या ? इसीलिए यह भक्त अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को बड़ा अच्छा बनाने के लिए प्रयत्नशील होता है। यह ‘गोषूक्ति' और ‘अश्वसूक्ति' है। इसकी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों सभी से उत्तमता झलक रही है । ज्ञान-प्राप्ति के लिए यह प्रयत्न आवश्यक भी तो है ।
भावार्थ -
हम अपनी इन्द्रियों को उत्तम बनाएँ, जिससे ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कर सकें।
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