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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1859
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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अ꣣स्मा꣢क꣣मि꣢न्द्रः꣣ स꣡मृ꣢तेषु ध्व꣣जे꣢ष्व꣣स्मा꣢कं꣣ या꣡ इष꣢꣯व꣣स्ता꣡ ज꣢यन्तु । अ꣣स्मा꣡कं꣢ वी꣣रा꣡ उत्त꣢꣯रे भवन्त्व꣣स्मा꣡ꣳ उ꣢ देवा अवता꣣ ह꣡वे꣢षु ॥१८५९॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣स्मा꣡क꣢म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । स꣡मृ꣢꣯तेषु । सम् । ऋ꣣तेषु । ध्वजे꣡षु꣢ । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । याः । इ꣡ष꣢꣯वः । ताः । ज꣣यन्तु । अस्मा꣡क꣢म् । वी꣣राः꣢ । उ꣡त्त꣢꣯रे । भ꣣वन्तु । अस्मा꣢न् । उ꣡ । देवाः । अवत । ह꣡वे꣢꣯षु ॥१८५९॥


स्वर रहित मन्त्र

अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु । अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माꣳ उ देवा अवता हवेषु ॥१८५९॥


स्वर रहित पद पाठ

अस्माकम् । इन्द्रः । समृतेषु । सम् । ऋतेषु । ध्वजेषु । अस्माकम् । याः । इषवः । ताः । जयन्तु । अस्माकम् । वीराः । उत्तरे । भवन्तु । अस्मान् । उ । देवाः । अवत । हवेषु ॥१८५९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1859
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

१. प्रस्तुत मन्त्र में चार बातें कही गयी हैं। पहली बात तो यह कि (ध्वजेषु समृतेषु) = ध्वजाओं व पताकाओं को ठीक प्रकार से प्राप्त कर लेने पर (अस्माकम्) = हम आस्तिक बुद्धिवालों का (इन्द्रः) = परमात्मा हो, अर्थात् हम प्रभु को ही अपना आश्रय मानकर चलें। ‘ध्वजा' एक लक्ष्य का प्रतीक है। जब हम एक लक्ष्य बना लें तब प्रभु को अपना आश्रय बनाकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाएँ। वस्तुतः संसार में प्रभु का आश्रय मनुष्य को कभी निरुत्साहित नहीं होने देता । आस्तिक मनुष्य प्रभु को सदा अपनाता है और किसी प्रकार से निरुत्साहित न हो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चलता है।

२. प्रभु से दूसरी प्रार्थना यह है कि (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवालों की (या:) = जो (इषवः) = प्रेरणाएँ हैं—अन्त:स्थित प्रभु से दिये जा रहे निर्देश हैं (ता:) = वे निर्देश और प्रेरणाएँ ही (जयन्तु) = जीतें । प्रभु की प्रेरणा होती है कि 'उषाकाल हो गया, उठ बैठ । क्यों सो रहा है ?' उसी समय एक इच्छा पैदा होती है कि कितनी मधुर वायु चल रही है, रात को नींद भी तो पूरी नहीं आई, दिन में सुस्ताते रहोगे, थोड़ा और सो ही लो । सामान्यतः यह इच्छा उस प्रेरणा को दबा देती है और व्यक्ति सोया रह जाता है । इसी को हम वैदिक शब्दों में इस रूप में भी कहते हैं कि दैवी प्रेरणा को आसुर कामना दबा लेती है। हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हमारी प्रेरणाएँ ही विजयी हों - इच्छाएँ नहीं । =

३. तीसरी प्रार्थना यह है कि (अस्माकम्) = हम आस्तिक वृत्तिवालों में (वीराः) = वीरता की भावनाएँ न कि कायरता की प्रवृत्ति (उत्तरे भवन्तु) = उत्कृष्ट हों – प्रबल हों। हम कायरता से कोई कार्य न करें । दबकर कार्य करना मनुष्यत्व से गिरना है। हमारे कार्य वीरता का परिचय दें।

४. हे (देवाः) = देवो! (अस्मान्) = हम आस्तिकों को (आहवेषु) = इन संग्रामों में (उ) = निश्चय से (अवत) = रक्षित करो। देव हमारे रक्षक हों । जब हम प्रभु में पूर्ण आस्था से चलेंगे, जब हम सदा अन्तःस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनेंगे, जब हम सदा वीरता के कार्य ही करेंगे तो क्यों देवताओं की रक्षा के पात्र न होंगे । जब मनुष्य अपनी वृत्ति को अच्छा बनाता है और पुरुषार्थ में किसी प्रकार की कमी नहीं आने देता तब वह देवों की रक्षा का पात्र होता है।

भावार्थ -

१. जीवन-लक्ष्य को ओझल न होने देते हुए हम प्रभु को अपना आश्रय समझें, २. हममें प्रेरणा की विजय हो न कि इच्छा की, ३. हम सदा वीरतापूर्ण कार्य करें और ४. हम सदा अध्यात्म-संग्रामों में देवों की रक्षा के पात्र हों ।

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