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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1864
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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क꣣ङ्काः꣡ सु꣢प꣣र्णा꣡ अनु꣢꣯ यन्त्वेना꣣न्गृ꣡ध्रा꣢णा꣣म꣡न्न꣢म꣣सा꣡वस्तु꣣ से꣡ना꣢ । मै꣡षां꣢ मोच्यघहा꣣र꣢श्च꣣ ने꣢न्द्र꣣ व꣡या꣢ꣳस्येनाननु꣣सं꣡य꣢न्तु꣣ स꣡र्वा꣢न् ॥१८६४

स्वर सहित पद पाठ

क꣣ङ्काः꣢ । सु꣣प꣢र्णाः । सु꣣ । पर्णाः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । य꣣न्तु । एनान् । गृ꣡ध्रा꣢꣯णाम् । अ꣡न्न꣢꣯म् । अ꣣सौ꣢ । अ꣣स्तु । से꣡ना꣢꣯ । मा । ए꣣षाम् । मोचि । अघहारः꣢ । अ꣣घ । हारः꣢ । च꣣ । न꣢ । इ꣣न्द्र । व꣡या꣢꣯ꣳसि । ए꣣नान् । अ꣣नु꣡संय꣢न्तु । अ꣣नु । सं꣡य꣢꣯न्तु । स꣡र्वा꣢꣯न् ॥१८६४॥


स्वर रहित मन्त्र

कङ्काः सुपर्णा अनु यन्त्वेनान्गृध्राणामन्नमसावस्तु सेना । मैषां मोच्यघहारश्च नेन्द्र वयाꣳस्येनाननुसंयन्तु सर्वान् ॥१८६४


स्वर रहित पद पाठ

कङ्काः । सुपर्णाः । सु । पर्णाः । अनु । यन्तु । एनान् । गृध्राणाम् । अन्नम् । असौ । अस्तु । सेना । मा । एषाम् । मोचि । अघहारः । अघ । हारः । च । न । इन्द्र । वयाꣳसि । एनान् । अनुसंयन्तु । अनु । संयन्तु । सर्वान् ॥१८६४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1864
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

गत मन्त्रों में ‘अमित्रों' का उल्लेख हो रहा था । 'काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर' ये मनुष्यों के प्रधान अमित्र-शत्रु हैं। इनको नष्ट करना ही मनुष्य का महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ है। मनुष्यों को चाहिए कि इनको दृढ़ निश्चय करके अपने से दूर भगा दे। मन्त्र में इस बात को इस प्रकार कहा है कि (एनान् अनुयन्तु) = इनके पीछे ही पड़ जाएँ, अर्थात् इनको समाप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लें। कौन? १. (कङ्काः) = [कंक्–गतौ, गतेस्रयोर्थाः–ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च] ज्ञानी लोग तथा २. (सुपर्णा:) = उत्तम ढंग से अपना पालन करनेवाले । ज्ञानी तथा आसुर आक्रमणों से अपनी रक्षा करनेवाले पुरुष अपने जीवन का यह मुख्य ध्येय बना लेते हैं कि कामादि वासनाओं को अपने में पनपने नहीं देना । वे सब प्रकार से इन्हें नष्ट करने के प्रयत्न में लग जाते हैं। इनके पीछे ही पड़ जाते हैं । वस्तुत: ‘ज्ञान और क्रियाशीलता' वे दो मुख्य साधन हैं जो कामादि को समाप्त कर देते हैं। इनमें क्रियाशीलता का बड़ा महत्त्व है । ज्ञान-प्राप्ति के लिए भी क्रियाशीलता चाहिए। इससे मन्त्र की समाप्ति पर फिर से कहेंगे कि (एनान् सर्वान्) = इस सब कामादि के (अनु संयन्तु) = पूरी तरह से पीछे पड़ जाएँ । कौन ? (वयांसि) = गतिशील व्यक्ति । क्रियाशील मनुष्य पर कामादि का आक्रमण नहीं होता । आलसी व्यक्ति ही इनका शिकार बनता है। सुपर्ण, कङ्क और वयस् ही वस्तुतः इन्द्र कहलाने के योग्य हैं। इन्द्र आत्मा वही है जो अपने को उत्तम ढंग से आसुर आक्रमणों से बचाता है, ज्ञानी और क्रियाशील है।

मन्त्र में कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जीवात्मन् ! इस बात का तू ध्यान कर कि (एषाम्) = इन कामादि में से (अघहारः चन) = पाप-प्रवृत्ति को लानेवाला कोई भी (मा मोचि) = मत छूट जाए- मत बच जाए । इन्द्र की मनोवृत्ति यही होनी चाहिए कि कामादि का संहार हो जाए । परन्तु 'इन्द्र' से विपरीत जो ‘गृध्र’=[greed गृध्] लालची होते हैं उन (गृध्राणाम्) = लालच– लोभ से आविष्ट व्यक्तियों की (असौ सेना) = यह कामादि की फ़ौज (अन्नम् अस्तु) = अन्न हो-enjoyment की वस्तु हो। वे ही इनमें आमोद-प्रमोद का अनुभव करें । वस्तुतः लोभ ही व्यसनवृक्ष का मूल है। सारे कामज व क्रोधज व्यसन लोभ मूलक ही हैं । लोभ होने पर ही ये पनपते हैं ।

इसलिए इन्द्र का मुख्य आक्रमण इस लोभरूप मूल पर ही होता है। वैदिक संस्कृति में यज्ञ की भावना पर अत्यधिक बल इसीलिए दिया गया है कि यह भावना लोभ का प्रतिपक्ष है। ‘लोभ समाप्त, तो वासनाएँ समाप्त ' इस तत्त्व को समझकर ही दान को महान् धर्म कहा गया है। दान देना, वस्तुतः सब वासनाओं का दान = खण्डन कर देता है । लोभ का नाश करके ही व्यक्ति प्रजा का अधिक-से-अधिक कल्याण व पालन करता है, इससे वह अपने में शक्ति का भरण करके' भारद्वाज कहलाता है और 'पायु: ' =अपना रक्षक बनता है । यही इस मन्त्र का ऋषि है ।

भावार्थ -

हम ज्ञानी बनें, आसुर भावनाओं से अपनी रक्षा का निश्चय करें और क्रियाशील हों । लोभ को दूर भगाने का प्रयत्न करें और इस प्रकार हम कामादि के शिकार कभी न हों ।

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