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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1865
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
1

अ꣣मित्रसेनां꣡ म꣢घवन्न꣣स्मा꣡ञ्छ꣢त्रुय꣣ती꣢म꣣भि꣢ । उ꣣भौ꣡ तामि꣢꣯न्द्र वृत्रहन्न꣣ग्नि꣡श्च꣢ दहतं꣣ प्र꣡ति꣢ ॥१८६५॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣मित्रसेना꣢म् । अ꣣मित्र । सेना꣢म् । म꣣घवन् । अस्मा꣢न् । श꣣त्रुयती꣢म् । अ꣣भि꣢ । उ꣡भौ꣢ । ताम् । इ꣣न्द्र । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अग्निः꣢ । च꣣ । दहतम् । प्र꣡ति꣢꣯ ॥१८६५॥


स्वर रहित मन्त्र

अमित्रसेनां मघवन्नस्माञ्छत्रुयतीमभि । उभौ तामिन्द्र वृत्रहन्नग्निश्च दहतं प्रति ॥१८६५॥


स्वर रहित पद पाठ

अमित्रसेनाम् । अमित्र । सेनाम् । मघवन् । अस्मान् । शत्रुयतीम् । अभि । उभौ । ताम् । इन्द्र । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अग्निः । च । दहतम् । प्रति ॥१८६५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1865
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

काम, क्रोध आदि की एक फ़ौज है । यह हमपर सदा आक्रमण करती है और हमारी शक्तियों को छिन्न-भिन्न [Shatter] करती रहती है । ज्ञान के ऐश्वर्यवाला जीव ही इसे नष्ट कर सकता है, बशर्ते कि वह सब वृत्रों – वासनाओं का नाश करनेवाले अग्निरूप प्रभु को अपना साथी बनाये। जीव स्वयं ज्ञान-प्राप्ति आदि उद्योगों में लगा रहे और प्रभु का सदा स्मरण करे तभी इन कामादि का दहन [विनाश] हो सकता है । मन्त्र में इस सारी भावना को इस प्रकार कहते हैं कि हे (मघवन्) = ज्ञानैश्वर्य से सम्पन्न (इन्द्र) = जीवात्मन्! हे (वृत्रहन्) = वृत्रों के विनाश करनेवाले जीव! (अग्निः च) = और यह अग्निरूप परमात्मा (उभौ) = आप दोनों (ताम्) = उस (अमित्रसेनाम्) = कामादि शत्रुओं की सेना को (प्रतिदहतम्) = एक-एक करके जला दो जो (अस्मान् अभिशत्रुयतीम्) = हमारी शक्तियों को नष्ट-भ्रष्ट कर रही है ।

वस्तुतः वासनाओं की सेना का विनाश तो तभी होगा जब १. मघवन् - जीव ज्ञान-ऐश्वर्यसम्पन्न बनेगा। २. वृत्रहन्-इन वासनाओं को नष्ट करने का दृढ़ संकल्प करेगा । ३. अग्निः च=उस प्रभु को अपना अगुआ बनाएगा [अग्रेणी:] । प्रभु को अपना साथी बनाये बिना अकेला जीव इस कार्य में कभी समर्थ नहीं हो सकता ।

भावार्थ -

प्रभु को अपना सारथि बनाने पर विजय निश्चित है। 

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