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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1869
ऋषिः - अप्रतिरथ इन्द्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराड् जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
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इ꣡न्द्र꣢स्य बा꣣हू꣡ स्थवि꣢꣯रौ꣣ यु꣡वा꣢नावनाधृ꣣ष्यौ꣡ सु꣢प्रती꣣का꣡व꣢स꣣ह्यौ꣢ । तौ꣡ यु꣢ञ्जीत प्रथ꣣मौ꣢꣫ योग꣣ आ꣡ग꣢ते꣣ या꣡भ्यां꣢ जि꣣त꣡मसु꣢꣯राणा꣣ꣳ स꣡हो꣢ म꣣ह꣢त् ॥१८६९॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । बा꣣हू꣡इति꣢ । स्थ꣡वि꣢꣯रौ । स्थ । वि꣢रौ । यु꣡वा꣢꣯नौ । अ꣣नाधृष्यौ꣢ । अ꣣न् । आधृष्यौ꣢ । सु꣣प्रतीकौ꣢ । सु꣢ । प्रतीकौ꣣ । अ꣣सह्यौ । अ꣣ । स꣢ह्यौ । तौ । यु꣢ञ्जीत । प्रथमौ꣢ । यो꣡गे꣢꣯ । आ꣡ग꣢꣯ते । आ । ग꣣ते । या꣡भ्या꣢꣯म् । जि꣣त꣢म् । अ꣡सु꣢꣯राणाम् । अ । सु꣣राणाम् । स꣡हः꣢꣯ । म꣣ह꣢त् ॥१८६९॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रस्य बाहू स्थविरौ युवानावनाधृष्यौ सुप्रतीकावसह्यौ । तौ युञ्जीत प्रथमौ योग आगते याभ्यां जितमसुराणाꣳ सहो महत् ॥१८६९॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रस्य । बाहूइति । स्थविरौ । स्थ । विरौ । युवानौ । अनाधृष्यौ । अन् । आधृष्यौ । सुप्रतीकौ । सु । प्रतीकौ । असह्यौ । अ । सह्यौ । तौ । युञ्जीत । प्रथमौ । योगे । आगते । आ । गते । याभ्याम् । जितम् । असुराणाम् । अ । सुराणाम् । सहः । महत् ॥१८६९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1869
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

(इन्द्रस्य) = इन्द्र की (बाहू) = दो बाहुएँ हैं । इन्द्र को चाहिए कि (योगे आगते) = प्रयोग का अवसर आने पर (तौ) =उन दोनों भुजाओं का (युञ्जीत) = प्रयोग करे। ये बाहुएँ वे हैं (याभ्याम्) = जिनसे (असुराणाम्) = असुरों का (महत् सहः) = महान् बल भी (जितम्) = जीत लिया जाता है; इनके द्वारा इन्द्र असुरों के महान् बल को भी पराजित कर देता है । वासनाओं को जीतना सुगम नहीं । इनका बल महान् है, इसमें तो शक ही नहीं, परन्तु इनको जीतना आवश्यक भी है। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि इन्द्र यदि अपनी दो बाहुओं का समय पर प्रयोग करता है तब ये असुरों का बल भी कुचल दिया जाता है। अब विचारणीय विषय यह है कि इन्द्र की ये दो बाहुएँ हैं क्या ? प्रस्तुत मन्त्र में 'योग' तथा 'युञ्जीत' इन शब्दों को देखकर योग सम्बद्ध प्राण- अपान की ओर ध्यान जाता है कि इन प्राणापानों का प्रयोग करें। प्राणापानों की साधना का महत्त्व योगमार्ग में स्पष्ट है, परन्तु 'बाहु' शब्द 'बाह्र प्रयत्ने' से बनकर संकेत कर रहा है कि ये प्राणापान न होकर 'ज्ञान और श्रद्धारूप दो प्रयत्न हैं जिनके द्वारा इन्द्र को प्रत्येक कर्म करना है। इनसे किया हुआ कर्म ही वीर्यवत्तर होता है। एवं, यहाँ बाहू शब्द से 'ज्ञान और श्रद्धा' ही अपेक्षित हैं । इन्द्र के ये ही दो महान् प्रयत्न हैं – इन्हें अपनाकर ही वह असुरों पर प्रबल हो पाता है। प्रसङ्ग आने पर इन्द्र को इनका ठीक विनियोग करना है। इन्द्र के ये दोनों ‘बाहु' कैसे हैं? यह मन्त्र के निम्न शब्दों से स्पष्ट है

१. (स्थविरौ) = ये स्थविर हैं— मनुष्य को स्थित प्रज्ञ बनानेवाले हैं। उसकी चंचलता को समाप्त करके उसे स्थिरशील बनाते हैं । २. (युवानौ) = ये ज्ञान और श्रद्धा पाप से पृथक् [यु=अमिश्रण] और पुण्य से संयुक्त करनेवाले हैं [यु- मिश्रण], ३. (अनाधृष्यौ) = ज्ञान और श्रद्धा मनुष्य को विषयों से अधर्षणीय बनाते हैं, ४. (सुप्रतीकौ) = ये दोनों सुन्दर मुखवाले हैं, अर्थात् इन्द्र के जीवन को सुन्दर बनानेवाले हैं, ५. (असह्यौ) = इन्द्र की शक्ति को कोई भी वासना सह नहीं सकती और परिणामतः कुचली जाती है, ६. (प्रथमौ) = ये मनुष्य को प्रथम श्रेणी को प्राप्त करानेवाले हैं। मनुष्यों में प्रथम स्थान ‘ब्रह्मा' का है । ये ज्ञान और श्रद्धा अपने आधारभूत मनुष्य को 'ब्रह्मा' ही बना देते हैं । यह मानव-जीवन की सर्वोच्च स्थिति है । ब्रह्मा ही तो देवताओं में प्रथम है, यही उत्तम सात्त्विक गति में प्रथम स्थान रखता है ।

भावार्थ -

मैं श्रद्धा और ज्ञान को अपनाकर ब्रह्मा की स्थिति को प्राप्त करूँ ।

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