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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1870
ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः देवता - संग्रामशिषः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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म꣡र्मा꣢णि ते꣣ व꣡र्म꣢णा च्छादयामि꣣ सो꣡म꣢स्त्वा꣣ रा꣢जा꣣मृ꣢ते꣣ना꣡नु꣢ वस्ताम् । उ꣣रो꣡र्वरी꣢꣯यो꣣ व꣡रु꣢णस्ते कृणोतु꣣ ज꣡य꣢न्तं꣣ त्वा꣡नु꣢ दे꣣वा꣡ म꣢दन्तु ॥१८७०॥

स्वर सहित पद पाठ

म꣡र्मा꣢꣯णि । ते꣣ । व꣡र्म꣢꣯णा । छा꣣दयामि । सो꣡मः꣢꣯ । त्वा । रा꣡जा꣢꣯ । अ꣣मृ꣡ते꣢न । अ꣣ । मृ꣡ते꣢꣯न । अ꣡नु꣢꣯ । व꣣स्ताम् । उ꣣रोः꣢ । व꣡री꣢꣯यः । व꣡रु꣢꣯णः । ते꣣ । कृणोतु । ज꣡य꣢꣯न्तम् । त्वा꣣ । अ꣡नु꣢꣯ । दे꣣वाः꣢ । म꣣दन्तु ॥१८७०॥


स्वर रहित मन्त्र

मर्माणि ते वर्मणा च्छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्ताम् । उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु ॥१८७०॥


स्वर रहित पद पाठ

मर्माणि । ते । वर्मणा । छादयामि । सोमः । त्वा । राजा । अमृतेन । अ । मृतेन । अनु । वस्ताम् । उरोः । वरीयः । वरुणः । ते । कृणोतु । जयन्तम् । त्वा । अनु । देवाः । मदन्तु ॥१८७०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1870
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

व्यवहार – पहली बात यह है कि १. संसार में कितने ही व्यक्ति बड़े संवेदनशील होते हैं, छोटी-सी बात भी उन्हें चुभ जाती है । अंग्रेजी में कहें तो वे बड़े sensitive होते हैं। जैसे थोड़ीसी चोट से बड़ी वेदना का अनुभव करनेवाले स्थल ‘मर्मस्थल' कहलाते हैं, इसी प्रकार ये व्यक्ति भी 'मर्मस्थल'- से ही बन जाते हैं । मन्त्र कहता है कि (ते मर्माणि) = तेरे मर्मस्थलों को (वर्मणा) = कवच से (छादयामि) = ढक देता हूँ-तुझे कुछ कठोर चमड़ी का बना देता हूँ । मनुष्य को संसार के व्यवहार में कुछ कठोर चमड़ी का बनना ही चाहिए। बहुत संवेदनशील व्यक्ति संसार में नहीं चल सकता 'पल में रत्ती, पल में सेर' कैसे जी पाएगा? ऐसा व्यक्ति सदा क्षुब्ध रहता है ।

शरीर – दूसरी बात यह है (त्वा) - तुझ (राजां सोमः) = शरीर में दीप्ति देनेवाला [राज दीप्तौ ] सोम=वीर्य [Semen] (अमृतेन) = अमरता से (अनुवस्ताम्) = आच्छादित करे, अर्थात् हमारा शरीर वीर्यशक्ति के कारण मृत्यु व रोगों से सदा दूर रहे । स्वस्थ शरीर मनुष्य ही तो संसार में आगे बढ़ सकता है।(‘मरणं विन्दुपातेन') = इस शक्ति के अपव्यय के परिणामस्वरूप ही हम जीतेजी मृत-से हो जाते हैं — और हमारा जीवन निरानन्द हो जाता है ।

(मन–वरुणः) = सब बुराइयों को रोकनेवाला प्रभु (ते) = तुझ (उरो:) = विशाल हृदयवाले के लिए (वरीयः) = उत्कृष्ट सुख को (कृणोतु) = करे | हृदय की विशालता में ही पवित्रता व प्रसन्नता है, संकोच में अपवित्रता व खिझ है। विशालता से ही हम वासना को प्रेम में परिवर्तन कर लेते हैं और काम को जीत जाते हैं ।

इस प्रकार (जयन्तम्) = जीतते हुए त्वा तुझे (देवा:) = देव (अनुमदन्तु) = उत्साहित करें । जीतनेवाले सदाचारी पुरुष का देव स्वागत करते हैं। पूर्णविजयी ब्रह्म का अतिथि बनता है। प्रथम नम्बर लेनेवाले पुत्र का जैसे माता-पिता स्वागत करते हैं, इसी प्रकार यह विजेता देवों से स्वागत किया जाता है। 

भावार्थ -

हम अत्यधिक वेदनाशील न हों, शरीर में स्वस्थ व मन में विशाल बनकर देवताओं के प्रिय हों ।

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