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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 207
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣢द्वी꣣डा꣡वि꣢न्द्र꣣ य꣢त्स्थि꣣रे꣡ यत्पर्शा꣢꣯ने꣣ प꣡रा꣢भृतम् । व꣡सु꣢ स्पा꣣र्हं꣡ तदा भ꣢꣯र ॥२०७॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । वी꣣डौ꣢ । इ꣣न्द्र । य꣢त् । स्थि꣣रे꣢ । यत् । प꣡र्शा꣢꣯ने । प꣡रा꣢꣯भृतम् । प꣡रा꣢꣯ । भृ꣣तम् । व꣡सु꣢꣯ । स्पा꣣र्ह꣢म् । तत् । आ । भ꣣र ॥२०७॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वीडाविन्द्र यत्स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम् । वसु स्पार्हं तदा भर ॥२०७॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । वीडौ । इन्द्र । यत् । स्थिरे । यत् । पर्शाने । पराभृतम् । परा । भृतम् । वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥२०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 207
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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विषय - त्रिशोक का स्पृहणीय धन
पदार्थ -
‘त्रिशोक' ऋषि वह है जिसके 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों दीप्त हैं। यह प्रार्थना करता है कि हे (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो! (यत्) = जो वसु-धन (वीडौ)= दृढ़ शरीरवाले पुरुष में है (यत्) = जो धन (स्थिरे)=स्थिर मनोवृत्तिवाले पुरुष के पास है (यत्) = जो धन (पर्शाने) = विचारशील पुरुष में (पराभृतम्) = रक्खा गया है, (तत्) = वह (स्पार्हं वसु) = स्पृहनीय धन (आभर) = मुझे भी प्राप्त कराईए।
१. अश्मा व वज्रतुल्य शरीरवाले व्यक्ति में 'स्वास्थ्य' रूप धन का निवास है। यह उचित व्यायाम व भोजन के द्वारा अपने शरीर को नीरोग बना पाया है, स्वास्थ्य की कान्ति इसके चेहरे पर झलकती है।
२. स्थिर मनोवृत्तिवाले पुरुष में 'अनासक्ति' व व्यसनाभावरूप नैर्मल्य का धन है। इस निर्मलता व मन:प्रसाद ने इसके चेहरे को भी प्रसादमय कर दिया है। इसके चेहरे पर मानस शान्ति झलकती हुई उसे उज्ज्वल बनाती है।
३. विचारशील पुरुष संसार के स्वरूप का ठीक विवेचन करता हुआ उसमें उलझता नहीं। इसकी देदीप्यमान ज्ञान-ज्योति में सब मालिन्य भस्म हो जाता है। इस ज्ञान से इसका भूतात्मा पवित्र हो उठता है और यह उज्ज्वल जीवनवाला बन जाता है। ये ही तीन धन या दीप्तियाँ हैं जिनका सम्पादन करके साधक 'त्रिशोक' बन जाता है।
भावार्थ -
हम त्रिविध धन व दीप्ति पाकर 'त्रिशोक' बनें।
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