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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 223
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡ती꣢हि मन्युषा꣣वि꣡ण꣢ꣳ सुषु꣣वा꣢ꣳस꣣मु꣡पे꣢꣯रय । अ꣣स्य꣢ रा꣣तौ꣢ सु꣣तं꣡ पि꣢ब ॥२२३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ति꣢꣯ । इ꣣हि । मन्युषावि꣡ण꣢म् । म꣣न्यु । सावि꣡न꣢म् । सु꣣षुवाँ꣡स꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । आ । ई꣣रय । अस्य꣢ । रा꣣तौ꣢ । सु꣣त꣢म् । पि꣣ब ॥२२३॥
स्वर रहित मन्त्र
अतीहि मन्युषाविणꣳ सुषुवाꣳसमुपेरय । अस्य रातौ सुतं पिब ॥२२३॥
स्वर रहित पद पाठ
अति । इहि । मन्युषाविणम् । मन्यु । साविनम् । सुषुवाँसम् । उप । आ । ईरय । अस्य । रातौ । सुतम् । पिब ॥२२३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 223
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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विषय - प्रभु दे रहे हैं, पी तो सही
पदार्थ -
गत मन्त्र में तीन पगों के रखने का उल्लेख था। उन पगों को रखते हुए कितने ही विघ्न उपस्थित होते हैं, कितनी ही बार असफलता का मुख देखना पड़ता है। यदि इस व्यक्ति को कोई उत्साहित न कर निरन्तर निरुत्साहित करेगा, तब यह कभी भी संसार में सफल न हो सकेगा। इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि (मन्युषाविणम्) = [मन्यु=शोक] शोक, दु:ख व निराशा के बीजों को बोनेवाले व्यक्ति को (अति-इहि) = लाँघ जा। ऐसे व्यक्तियों के समीप मत उठ-बैठ (सुषुवांसम्) = सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाले के (उप) = समीप (ईरय) = गति कर । संसार में निरुत्साहित करनेवाले व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर किसी ने सफलता प्राप्त नहीं की, इसलिए उत्साह बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि हमारा सम्पर्क निराशावादियों से न होकर सदा आशावादियों से रहे। आशावाद में भरे हुए मनुष्य को चाहिए कि (अस्य) = प्रभु की (रातौ) = दोनों— (सुतम्)=शक्ति व ज्ञान का (पिब) = पान करे। प्रभु तुझे ज्ञान दे रहे हैं, तू उस ज्ञान को पी। प्रभु ने आहार से वीर्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया से शक्ति दी है - तू उसे अपने में सुरक्षित कर। मनुष्य निरुत्साहित न हो, ज्ञान का संचय करता चले और शक्ति को अपने में भरता चले तो वह उल्लिखित तीनों पगों को रखने में अवश्य समर्थ होगा।
भावार्थ -
आशावादियों के सम्पर्क में चलो, ज्ञान व शक्ति का संचय करो। यही मेधातिथि का मार्ग है।
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