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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 275
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वा꣡स्तो꣢ष्पते ध्रु꣣वा꣡ स्थूणाꣳ स꣢꣯त्रꣳ सो꣣म्या꣡ना꣢म् । द्र꣣प्सः꣢ पु꣣रां꣢ भे꣢त्ता꣡ शश्व꣢꣯तीना꣣मि꣢न्द्रो꣣ मु꣡नी꣢ना꣣ꣳ स꣡खा꣢ ॥२७५॥

स्वर सहित पद पाठ

वा꣡स्तोः꣢꣯ । प꣣ते । ध्रुवा꣢ । स्थू꣡णा꣢꣯ । अँ꣡सत्रम् । सो꣣म्या꣡ना꣢म् । द्र꣣प्सः꣢ । पु꣣रा꣢म् । भे꣣त्ता꣢ । श꣡श्व꣢꣯तीनाम् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । मु꣡नी꣢꣯नाम् । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ ॥२७५॥


स्वर रहित मन्त्र

वास्तोष्पते ध्रुवा स्थूणाꣳ सत्रꣳ सोम्यानाम् । द्रप्सः पुरां भेत्ता शश्वतीनामिन्द्रो मुनीनाꣳ सखा ॥२७५॥


स्वर रहित पद पाठ

वास्तोः । पते । ध्रुवा । स्थूणा । अँसत्रम् । सोम्यानाम् । द्रप्सः । पुराम् । भेत्ता । शश्वतीनाम् । इन्द्रः । मुनीनाम् । सखा । स । खा ॥२७५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 275
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
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पदार्थ -

(वास्तोष्पते)= हमारे शरीररूप घरों के रक्षक प्रभो ! [वास्तु - घर, गृह] आप हमारे जीवनभवन के ध्(रुवा स्थूणा) = ध्रुव स्तम्भ हो । (सोम्यानाम् अंसत्रम्) = निरभिमान भक्तों के कन्धों के रक्षक हो, अर्थात् उनपर सदा आपके वरदहस्त की छाया बनी रहती है। (द्रप्सः) = उन भक्तों को आप हर्षित करनेवाले हो - उन्हें पवित्र मनःप्रसाद प्राप्त होता है। आप अपने भक्तों के (शश्वतीनाम्) = सनातन काल से चले आ रहे (पुराम्) = शरीररूप नगरियों के (भेत्ता) = विदारण करनेवाले हैं। वासनाएँ इन्द्रियों, मन और बुद्धि को अपना अधिष्ठान बनाती हैं - प्रभु की कृपा से ये पवित्र हो कर वासनओं के दुर्ग नहीं रहते।

प्रभु इन वासनाओं का संहार करके हमें उच्च ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं। (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यवाले हैं और अन्त में (मुनीनां सखा)=वे प्रभु मुनियों के सखा हैं। (मौनान्मुनिः) = कम बोलनेवालों के वे प्रभु मित्र हैं। जो बोलते कम हैं और अपने कर्तव्य कर्म को अप्रमाद से करते चलते हैं, वे मुनि कहलाते हैं। प्रभु की मैत्री इन्हीं को प्राप्त होती है।

वस्तुतः ‘इर् गतौ, (बिठं)=हृदयान्तरिक्षम्' जिसके हृदयान्तरिक्ष में कर्म संकल्प है, उस इरिम्बिठि को क्रियाप्रधान व मौनवाला होना ही चाहिए। बहुत बोलने से शक्ति का व्यर्थ में ही यापन होता है।

इस प्रकार स्तुति करता हुआ इरिम्बिठि निम्न बोध लेता है – १. मुझे प्रभु के दिये इस गृह की रक्षा करनी है - इसे स्वस्थ रखना है। २. जीवन का मूलाधार प्रभु को ही मानना है, ३. सौम्य बनकर प्रभु के वरदहस्त को अपने सिर से दूर नहीं होने देना है, ४. मन:प्रसाद को नष्ट नहीं करना है, ५. शरीर, मन व इन्द्रियों को असुर नगरी नहीं बने रहने देना है, ६. प्रभु के सम्पर्क में आकर परमैश्वर्य को पाना है और ७. यथासम्भव कम बोलते हुए प्रभु की मैत्री का पात्र बनना है। इस प्रकार का जीवन बनानेवाला ही ('काण्व') = मेधावी है।

भावार्थ -

हम सौम्य बनें, जिससे सदा प्रभु की छत्रछाया में रहें।

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