Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 276
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
ब꣢ण्म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि सू꣣र्य ब꣡डा꣢दित्य म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि । म꣣ह꣡स्ते꣢ स꣣तो꣡ म꣢हि꣣मा꣡ प꣢निष्टम म꣣ह्ना꣡ दे꣢व म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि ॥२७६॥
स्वर सहित पद पाठब꣢ट् । म꣣हा꣢न् । अ꣢सि । सूर्य । ब꣢ट् । आ꣣दित्य । आ । दित्य । महा꣢न् । अ꣣सि । महः꣢ । ते꣣ । सतः꣢ । म꣢हिमा꣢ । प꣣निष्टम । मह्ना꣢ । दे꣣व । महा꣢न् । अ꣣सि ॥२७६॥
स्वर रहित मन्त्र
बण्महाꣳ असि सूर्य बडादित्य महाꣳ असि । महस्ते सतो महिमा पनिष्टम मह्ना देव महाꣳ असि ॥२७६॥
स्वर रहित पद पाठ
बट् । महान् । असि । सूर्य । बट् । आदित्य । आ । दित्य । महान् । असि । महः । ते । सतः । महिमा । पनिष्टम । मह्ना । देव । महान् । असि ॥२७६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 276
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5;
Acknowledgment
विषय - रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते
पदार्थ -
इस मन्त्र का ऋषि जमदग्नि भार्गव' है। जमत्- खूब खानेवाली है अग्नि - वैश्वानराग्नि जिसकी, ऐसा यह जमदग्नि ऋषि है। तेजस्वी होने से यह भार्गव है। इसने अपना खूब परिपाक किया है। पाचनाग्नि ठीक रहेगी तो शरीर स्वस्थ रहेगा। पाचनाग्नि ठीक तब रहेगी जब हम रस में फँस भोजन का अतियोग न कर बैठेंगे। (‘रसमूला हि व्याधय:') = सब बीमारियाँ इस रस=स्वाद के कारण ही उत्पन्न होती हैं। इस रस को हम तब जीत पाएँगे जब उस महान् रस का [रसो वै सः] अनुभव करेंगे। जमदग्नि प्रभु - दर्शन की कामना से प्रभु की विभूतियों में उसकी महिमा के दर्शन का प्रयत्न करता है और कहता है कि हे सूर्य = आकाश में निरन्तर आगे बढ़नेवाली ज्योति! तू (वट्) = सचमुच कितनी (महान् असि)=महान् है ! पृथिवी से साढ़े तेरह लाख गुणा बड़ा, ६४ हजार मील ऊँची लपटोंवाला, साढ़े नौ करोड़ मील दूरी से इतनी तीव्र ज्योति प्राप्त करानेवाला सूर्य सचमुच महान् है। हे (आदित्य) = आदान करनेवाले वट्=तू सचमुच कितना (महान् असि)= महान् है। आदान करने की तेरी शक्ति की क्या कोई तुलना कर सकता है? समुद्र-के-समुद्र को उठाकर किस प्रकार तू अन्तरिक्ष में ले- जाता है। तेरे आदान की यह भी विशेषता है कि तू शुद्ध- मधुर जल का ही ग्रहण करता है। हम भी माधुर्य का ही ग्रहण करें। तेरी ही भाँति क्रियाशील बनकर तेजस्वी बनें।
हे प्रभो! आप तो (महः) = तेजस्विता के ही पुञ्ज हो, (तेजोऽसि) = तेज-ही- तेज हो, अतएव (सतः ते)=सत्ता व पवित्रतावाले तेरी (महिमा)=गौरव (पनिष्टम:) = स्तुत्यतम है- अधिक-से-अधिक स्तुति करने योग्य है। इस प्रकार ध्यान करता हुआ जमदग्नि कह उठता है कि हे देव- दिव्यशक्ते! तुम तो (मह्णा) = अपनी महिमा से (महान् असि) = सचमुच महान् हो - पूजा के योग्य हो। मैं सब ओर आपकी ही महिमा को देखता हूँ और आपके प्रति नतमस्तक होता हूँ।
भावार्थ -
हमारे जीवन का आदर्श भी 'जमदग्नि भार्गव' बनना हो ।
इस भाष्य को एडिट करें