Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 290
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
6

उ꣣भ꣡य꣢ꣳ शृ꣣ण꣡व꣢च्च न꣣ इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣र्वा꣢गि꣣दं꣡ वचः꣢꣯ । स꣣त्रा꣡च्या꣢ म꣣घ꣢वा꣣न्त्सो꣡म꣢पीतये धि꣣या꣡ शवि꣢꣯ष्ठ꣣ आ꣡ ग꣢मत् ॥२९०॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣣भ꣡य꣢म् । शृ꣣ण꣡व꣢त् । च꣣ । नः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣣र्वा꣢क् । इ꣣द꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । स꣣त्रा꣡च्या꣢ । स꣣त्रा꣢ । च्या꣣ । मघ꣡वा꣢न् । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये । धिया꣣ । श꣡वि꣢꣯ष्ठः । आ । ग꣣मत् ॥२९०॥


स्वर रहित मन्त्र

उभयꣳ शृणवच्च न इन्द्रो अर्वागिदं वचः । सत्राच्या मघवान्त्सोमपीतये धिया शविष्ठ आ गमत् ॥२९०॥


स्वर रहित पद पाठ

उभयम् । शृणवत् । च । नः । इन्द्रः । अर्वाक् । इदम् । वचः । सत्राच्या । सत्रा । च्या । मघवान् । सोमपीतये । सोम । पीतये । धिया । शविष्ठः । आ । गमत् ॥२९०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 290
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
Acknowledgment

पदार्थ -

हे (मघवन्) = पवित्र ऐश्वर्यवाले प्रभो! (उभयम्) = हम दोनों ही बातें चाहते हैं। प्रथम तो यह कि (इन्द्रः अर्वाक्)=परमैर्यशाली अन्त:स्थित आप (नः) = हमारे (इदं वचः) = इस वेदवाणी के अनुकूल कहे गये प्रार्थनावाक्य को (शृणवत्) = सुने और वह (शविष्ठः) = सर्वाधिक शक्तिवाले आप (आगमत्) = हमें प्राप्त हों। किसलिए प्राप्त हों कि (सोमपीतये) = सोम की रक्षा के लिए अर्थात् हम वासनाशून्य होकर सोम की-अपनी वीर्यशक्ति की रक्षा कर सकें और (सत्राच्या धिया) = सह-गतिवाली बुद्धि से वह प्रभु हमें प्राप्त हों। हमारे अन्दर मिलकर कार्य करने की भावना हो। [सत्रा=सह आञ्च् = गति ] । हम प्रभु से वस्तुतः तीन चीजों के लिए याचना करते हैं १. शक्ति २. सोम की रक्षा और ३. मिलकर कार्य करने की भावाना। मनुष्य की वैयक्तिक उन्नति बहुत कुछ शक्ति और सोम की रक्षा पर निर्भर है। सोम की रक्षा के द्वारा शक्ति-सम्पन्न बनने पर ही मनुष्य उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ता है। इसके बाद सभी सामाजिक उन्नतियों का रहस्य ‘मिलकर काम करने की भावना' पर निर्भर करता है। जिस घर में यह cooperation की भावना है वह फूलता-फलता है,
और यही भावना राष्ट्र को समृद्ध बनाती है। प्रभु के साथ अपना सम्पर्क जोड़नेवाला व्यक्ति 'प्रागाथ' है- निरन्तर प्रभु के गायन करता है । इस निरन्तर गायन से शक्ति का अनुभव करता है, अत: ‘भर्ग' है। प्रभु शविष्ठ हैं- उनके सम्पर्क में आकर यह शक्ति-सम्पन्न क्यों न बनेगा। इस निरन्तर प्रभु के गायन से ही वासनाएँ दूर रहती हैं और इसे सोमपान में समर्थ बनाती हैं। प्रभु का गायन ही इसे एकत्व का भी अनुभव कराता है और यह सहगति की भावनावाला होता है। यह मिलकर कार्य करने की भावना इसे सामाजिक उत्थान की ओर ले जाती है।

भावार्थ -

हमें प्रभु की कृपा प्राप्त होगी तो वे हमारी प्रार्थना को सुनेंगे ही नहीं, हमें प्राप्त भी होंगे। उस समय हम शक्तिशाली होंगे, सोमपान में समर्थ होंगे और सहगति की भावनावाले होंगे।

इस भाष्य को एडिट करें
Top