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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 295
ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ विश्वामित्र इत्येके देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣡ त्वा꣢३꣱द्य꣡ स꣢ब꣣र्दु꣡घा꣢ꣳ हु꣣वे꣡ गा꣢य꣣त्र꣡वे꣢पसम् । इ꣡न्द्रं꣢ धे꣣नु꣢ꣳ सु꣣दु꣢घा꣣म꣢न्या꣣मि꣡ष꣢मु꣣रु꣡धा꣢रामर꣣ङ्कृ꣡त꣢म् ॥२९५॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । तु । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । स꣣ब꣡र्दुघाम् । स꣣बः । दु꣡घा꣢꣯म् । हु꣣वे꣢ । गा꣣यत्र꣡वे꣢पसम् । गा꣣यत्र꣢ । वे꣣पसम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । धे꣣नु꣢म् । सु꣣दु꣡घा꣣म् । सु꣣ । दु꣡घा꣢꣯म् । अ꣡न्या꣢꣯म् । इ꣡ष꣢꣯म् । उ꣣रु꣡धा꣢राम् । उ꣣रु꣢ । धा꣣राम् । अरङ्कृ꣡त꣢म् । अ꣣रम् । कृ꣡त꣢꣯म् ॥२९५॥


स्वर रहित मन्त्र

आ त्वा३द्य सबर्दुघाꣳ हुवे गायत्रवेपसम् । इन्द्रं धेनुꣳ सुदुघामन्यामिषमुरुधारामरङ्कृतम् ॥२९५॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । तु । अद्य । अ । द्य । सबर्दुघाम् । सबः । दुघाम् । हुवे । गायत्रवेपसम् । गायत्र । वेपसम् । इन्द्रम् । धेनुम् । सुदुघाम् । सु । दुघाम् । अन्याम् । इषम् । उरुधाराम् । उरु । धाराम् । अरङ्कृतम् । अरम् । कृतम् ॥२९५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 295
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

मन्त्र का ऋषि मेधातिथि कहता है कि (अद्य) = आज (इन्द्रम्) = वेदरूप परमैश्वर्यवाले से (त्वा) = आपसे वेदवाणी की भिक्षा की (हुवे) - प्रार्थना करता हूँ, माँगता हूँ, जो वेदवाणी १. (सबर्दुघाम्)=ज्ञानरूप दुग्ध का दोहन करनेवाली है। वेदवाणी धेनु है तो ज्ञान ही उसका दूध है, २.( गायत्रवेपसम्) = यह वेदवाणी गायन करनेवाले का त्राण करती है और कामादि वासनाओं को (वेप्) = कम्पित  करनेवाली है, ३. (धेनुम्) =[धेट् पाने] यह ज्ञानदुग्ध का पान कराके पालनेवाली है, ३.( सु-दुघाम्) = सुगमता से दोहन के योग्य है, अर्थात् इसका समझना अत्यन्त कठिन नहीं है, ५. (अन्याम्) = यह विलक्षण है। मनुष्कृत ग्रन्थों में अति विस्तार में थोड़ा-सा सार होता है, जबकि ये वेदवाणियाँ सार - ही - सार हैं। ६. (इषम्) = ये वेदवाणियाँ सदा मनुष्य को प्रेरणा देनेवाली हैं, ७. (उरुधारम्) = विशाल धारण शक्तिवाली हैं। धारण के द्वारा यह हमारे जीवन को बड़ा सुन्दर बनाती है। ८. (अरं-कृतम्) = यह वेदवाणी हमारे जीवनों को उत्तम गुणों से अलंकृत करनेवाली है [अरं करोति इति अरंकृत्, तम्=अरंकृतम्]। ऋग्वेद के दस मण्डल मानो हमारे जीवनों को धर्म के दसों लक्षणों से मण्डित कर रहे हैं।

एवं, इस वेदवाणी को प्राप्त करना ही बुद्धिमत्ता है। इसे प्राप्त करके ही हम प्रभु को भी प्राप्त करनेवाले 'मेध्यातिथि' बनते हैं।

भावार्थ -

मैं वेदवाणी की प्राप्ति के लिए ही तीव्र उत्कण्ठावाला बनूँ।

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