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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 296
ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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न꣡ त्वा꣢ बृ꣣ह꣢न्तो꣣ अ꣡द्र꣢यो꣣ व꣡र꣢न्त इन्द्र वी꣣ड꣡वः꣢ । य꣡च्छिक्ष꣢꣯सि स्तुव꣣ते꣡ माव꣢꣯ते꣣ व꣢सु꣣ न꣢ कि꣣ष्ट꣡दा मि꣢꣯नाति ते ॥२९६॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣢ । त्वा꣣ । बृह꣡न्तः꣢ । अ꣡द्र꣢꣯यः । अ । द्र꣢यः । व꣡र꣢꣯न्ते । इ꣣न्द्र । वीड꣡वः꣢ । यत् । शि꣡क्ष꣢꣯सि । स्तु꣣वते꣢ । मा꣡व꣢꣯ते । व꣡सु꣢꣯ । न । किः꣣ । तत् । आ । मि꣣नाति । ते ॥२९६॥


स्वर रहित मन्त्र

न त्वा बृहन्तो अद्रयो वरन्त इन्द्र वीडवः । यच्छिक्षसि स्तुवते मावते वसु न किष्टदा मिनाति ते ॥२९६॥


स्वर रहित पद पाठ

न । त्वा । बृहन्तः । अद्रयः । अ । द्रयः । वरन्ते । इन्द्र । वीडवः । यत् । शिक्षसि । स्तुवते । मावते । वसु । न । किः । तत् । आ । मिनाति । ते ॥२९६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 296
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

जब जीव दृढ़ निश्चयपूर्वक अपने जीवन यात्रा के मार्ग पर चलता है तो प्रभु कहते हैं कि हे इन्द्र= इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! त्(वा) =  तुझे (बृहन्तः) = बड़े-बड़े (वीडव:) = अत्यन्त दृढ़ (अद्रयः)=अभेद्य पर्वतों- जैसे विघ्न भी (न वरन्ते) = रोक नहीं पाते। सांसारिक प्रलोभन तुझे रोक नहीं सकते। (यद्) =जब यह जितेन्द्रिय व्यक्तियों को तथा (मावते) = प्रभु मेरे जैसे ज्ञानी व्यक्तियों को (वसु) = धन देता है, तब (ते) = तेरे (तत्) = उस दान के कार्य को (नकि:) = कोई भी काम, लोभादि वासना (अमिनाति) = नष्ट नहीं करती है। यह अपना दान देता ही है। उसके मस्तिष्क में दान को अधिक उपयोगी बनाने के भाव चक्कर काटते हैं। इसीसे इसका नाम (नव-धा) = नये-नये प्रकार से धारण करनेवाला होता है। नवधा शब्द का ही परोक्षरूप 'नोधा' है। यही इस मन्त्र का ऋषि है। प्रति क्षण इस उत्तम भावना में लगे होने से ही यह इन्द्रियों को विषयों में फँसने से बचानेवाला होता है, अतएव 'गोतम' कहलाता है, प्रशस्त इन्द्रियोंवाला। 

भावार्थ -

मैं लोकहित का ध्यान करते हुए प्रशस्तेन्द्रिय बनूँ।
 

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