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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 297
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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क꣡ ईं꣢ वेद सु꣣ते꣢꣫ सचा꣣ पि꣡ब꣢न्तं꣣ क꣡द्वयो꣢꣯ दधे । अ꣣यं꣡ यः पुरो꣢꣯ विभि꣣न꣡त्त्योज꣢꣯सा मन्दा꣣नः꣢ शि꣣प्र्य꣡न्ध꣢सः ॥२९७॥

स्वर सहित पद पाठ

कः꣢ । ई꣣म् । वेद । सुते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯न्तम् । कत् । व꣡यः꣢꣯ । द꣣धे । अय꣢म् । यः । पु꣡रः꣢꣯ । वि꣣भिन꣡त्ति꣢ । वि꣣ । भिन꣡त्ति꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । म꣣न्दानः꣢ । शि꣣प्री꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः ॥२९७॥


स्वर रहित मन्त्र

क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे । अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥२९७॥


स्वर रहित पद पाठ

कः । ईम् । वेद । सुते । सचा । पिबन्तम् । कत् । वयः । दधे । अयम् । यः । पुरः । विभिनत्ति । वि । भिनत्ति । ओजसा । मन्दानः । शिप्री । अन्धसः ॥२९७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 297
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

(कः) = कौन (इम्) = निश्चय से (वेद) = पूरा ज्ञान रखता है कि इस प्रकार धन का विनियोग सर्वोत्तम होगा, परन्तु इतना नियम प्रत्येक व्यक्ति बतला सकता है कि मैं केवलादि न बनूँगा। ऐसा नियम बनाकर (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में (सत्रा) = मिलकर (पिबन्तम्) = पान करते हुए को (क-द्वयः) = ऐहलौकिक व पारलौकिक दोनों सुख (दधे) = धारण करता है। सदा मिलकर खाने के सिद्धान्त पर चलनेवाले का दोनों ही लोकों में कल्याण सिद्ध होता है। (अयम्) = यह मिलकर खानेवाला वह व्यक्ति है (य:) = जोकि (पुरः) = काम, क्रोध और लोभ की नगरियों को (विभनत्ति) = तोड़ डालता है। इन्हें तोड़कर ही 'त्रिपुरारि' के सदृश बनता है। यह व्यक्ति वह है जोकि (ओजसा मन्दानः)=ओज के कारण सदा ओजस्वी बनता है, और आज के कारण सदा प्रसन्न होता है। यह व्यक्ति वह है जोकि (अन्धसः) = सोम के द्वारा (शिप्री) = शिरस्त्राणवाला है, उस उत्कृष्ट ज्ञानवाला है जो उसकी रक्षा का कारण बनता है।

एवं, इस मन्त्र में केवलादि न बनने के निम्न लाभ दर्शाये गये हैं–१. यह उभयलोक को कल्याण प्राप्त करता है, २. तीनों असुर पुरियों का विध्वंस कर ‘काम, क्रोध, लोभ' से ऊपर उठता है, ३. ओजस्विता से सदा प्रसन्न मनवाला होता है और ४. सोमरक्षा के द्वारा उत्कृष्ट रक्षक-ज्ञान को प्राप्त करनेवाला होता है।

इन लाभों को देखकर इस मार्ग को अपनानेवाला ही बुद्धिमान् है–'मेधातिथि' है। यही इस मन्त्र का ऋषि है।

भावार्थ -

मैं केवलादि बनकर 'केवलाघ' पाप न बन जाऊँ।

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