Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 328
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5
प्र꣡ वो꣢ म꣣हे꣡ म꣢हे꣣वृ꣡धे꣢ भरध्वं꣣ प्र꣡चे꣢तसे꣣ प्र꣡ सु꣢म꣣तिं꣡ कृ꣢णुध्वम् । वि꣡शः꣢ पू꣣र्वीः꣡ प्र च꣢꣯र चर्षणि꣣प्राः꣢ ॥३२८॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । वः꣣ । महे꣢ । म꣣हेवृ꣡धे꣢ । म꣣हे । वृ꣡धे꣢꣯ । भ꣣रध्वम् । प्र꣡चे꣢꣯तसे । प्र । चे꣣तसे । प्र꣢ । सु꣣मति꣢म् । सु꣣ । मति꣢म् । कृ꣣णुध्वम् । वि꣡शः꣢꣯ । पू꣣र्वीः꣢ । प्र । च꣣र । चर्षणिप्राः꣢ । चर्षणि । प्राः꣢ ॥३२८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो महे महेवृधे भरध्वं प्रचेतसे प्र सुमतिं कृणुध्वम् । विशः पूर्वीः प्र चर चर्षणिप्राः ॥३२८॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । वः । महे । महेवृधे । महे । वृधे । भरध्वम् । प्रचेतसे । प्र । चेतसे । प्र । सुमतिम् । सु । मतिम् । कृणुध्वम् । विशः । पूर्वीः । प्र । चर । चर्षणिप्राः । चर्षणि । प्राः ॥३२८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 328
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
Acknowledgment
विषय - औरों के लिए गतिशील बन
पदार्थ -
(वः)=तुम्हारी (महेवृधे)=महान् वृद्धि के लिए (महे)= उस महान् प्रभु के लिए प्र (भरध्वम्) = नमन का सम्पादन करो। दस प्रभु के प्रति प्रातः सायं नमन की वृत्ति को धारण करते हुए प्राप्त होओ। जितना ही हम उस प्रभु सम्पर्क में रहेंगे उतना ही हमारा जीवन 'सत्य, शिव व सुन्दर ' बनेगा।
प्रातः-सायं प्रभु के नमन के साथ प्रकृष्ट ज्ञान के लिए (सुमतिम्) = कल्याणी मति को (प्र-कृणुध्वम्) = प्रकृष्टतया सम्पादित करो। हम सदा अपनी मति को कल्याणी बनाये रक्खें जिससे हमारा मस्तिष्क ठीक रहे, हमारी चेतना उत्कृष्ट बनी रहे।
इस प्रकार अपने जीवन को उन्नत बनाकर और अपने मस्तिष्क को स्वस्थ रखते हुए मनुष्य को चाहिए कि वह (चर्षणिप्रा:) = मनुष्यों का पूरण करनेवाला बने [चर्षणि-मनुष्य, प्रा-पूरणे] और इसी उद्देश्य से पूर्वीः विश:- अपना पूरण करनेवाली [जिनमें उन्नत होने की सम्भावना है] उन प्रजाओं में प्रचर प्रचार कर । जिस प्रकार जिसको भूख नहीं लगती उस मनुष्य को भोजन देने से कुछ लाभ नहीं इसी प्रकार जो प्रजाएँ उन्नति की भावना से रहित हैं उन्हें उत्तम उपदेश व्यर्थ लगते हैं। अतः प्रचारक को पहले क्षेत्र तैयार करना और तभी उसमें ज्ञान- बीज बोना चाहिए ।
इन तीनों बातों को अपने जीवन में निरन्तर लाता हुआ यह ऋषि ‘वसिष्ठ' है-बड़े संयम से चलनेवाला है। इसी संयम के लिए यह 'मैत्रावरुणि' = प्राणापान की साधना करता है।
भावार्थ -
प्रभु नमन से हम अपनी महान् उन्नति करें। २. कल्याणी मति मस्तिष्क को स्वस्थ रखें। ३. लोगों को ज्ञान के लिए उत्सुक बनाकर उन्हें ज्ञान दें।
इस भाष्य को एडिट करें