Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 329
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5

शु꣣न꣡ꣳ हु꣢वेम म꣣घ꣡वा꣢न꣣मि꣡न्द्र꣢मस्मि꣢꣫न्भरे꣣ नृ꣡त꣢मं꣣ वा꣡ज꣢सातौ । शृ꣣ण्व꣡न्त꣢मु꣣ग्र꣢मू꣣त꣡ये꣢ स꣣म꣢त्सु꣣ घ्न꣡न्तं꣢ वृ꣣त्रा꣡णि꣢ स꣣ञ्जि꣢तं꣣ ध꣡ना꣢नि ॥३२९॥

स्वर सहित पद पाठ

शु꣣न꣢म् । हु꣣वेम । मघ꣡वा꣢नम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣स्मि꣢न् । भ꣡रे꣢꣯ । नृ꣡तम꣢꣯म् । वा꣡ज꣢꣯सातौ । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तौ । शृण्व꣡न्त꣢म्꣢ । उ꣣ग्र꣢म् । ऊ꣣त꣡ये꣢ । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । घ्न꣡न्त꣢꣯म् । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । स꣣ञ्जि꣡त꣢म् । स꣣म् । जि꣡त꣢꣯म् । ध꣡ना꣢꣯नि ॥३२९॥


स्वर रहित मन्त्र

शुनꣳ हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि सञ्जितं धनानि ॥३२९॥


स्वर रहित पद पाठ

शुनम् । हुवेम । मघवानम् । इन्द्रम् । अस्मिन् । भरे । नृतमम् । वाजसातौ । वाज । सातौ । शृण्वन्तम् । उग्रम् । ऊतये । समत्सु । स । मत्सु । घ्नन्तम् । वृत्राणि । सञ्जितम् । सम् । जितम् । धनानि ॥३२९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 329
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 10;
Acknowledgment

पदार्थ -

गत मंन्त्र में अन्तिम शब्द था ('चर्षणिप्रा:) = मनुष्यों का पूरण करनेवाला। यह (‘चर्षणिप्राः' विश: प्रचर) = प्रजाओं विचरता हुआ प्रचार करता है। उनको उत्तम प्रेरणा देता हुआ यह उन्हें आगे और आगे ले चलता है, आगे ले चलने के कारण यह 'नृ' है [नृ नये one who leads] ‘तम’ यह अतिशय द्योतक प्रत्यय है। इस (नृतमम्) = नृतम को हम (हुवेम) = पुकारते हैं, जोकि -

१. (शुनम्)=[शुन् गतौ] गतिशील है। नेता के अन्दर सबसे पहला गुण यह होना चाहिए कि इसका जीवन क्रियामय हो । आलसी व्यक्ति कभी नेतृत्व नहीं कर सकता। लोकहित में लगा हुआ व्यक्ति ही जनप्रिय हो सकता है। वही स्वयं क्रियामय होता हुआ आदर्श से औरों को भी आगे ले-चल सकता है।

२. (मघवानम्) = इस नेता की क्रिया [मा+अघ] = पाप से शून्य होती है। उसमें स्वार्थ की गन्ध नहीं होती, साथ ही वह ऐश्वर्यवाला होता है, निजी आवश्यकताओं के लिए पराश्रित नहीं होता और दूसरों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने की शक्ति रखता है। 

३. (इन्द्रम्) = यह जितेन्द्रिय होता है 'जितेन्द्रियों हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः' -जो स्वयं जितेन्द्रिय है वही तो औरों का नेतृत्व कर सकता है। अजितेन्द्रिय व्यक्ति औरों की दृष्टि में शीघ्र गिर जाता है।

४. (अस्मिन् भरे)=इस संसार - संघर्षरूप युद्ध में (वाजसातौ) = शक्ति की प्राप्ति के निमित्त हम इस (नृतमम्) = उत्तम नेता को (हुवेम) = पुकारते हैं। नेता को करना क्या है? उसे लोगों को एकत्रित कर निराश होते हुए लोगों को उत्साहित करना है। 'चिड़ियों को बाज बना देता है। ' एक नेता की सफलता इसीमें है कि वह अनुयायियों की उत्साह-शक्ति को मन्द नहीं पड़ने देता। वह उनमें आत्मगौरव की भावना भरने का ध्यान रखता है।

५. (शृण्वन्तम्) = यह सुनता है, नेता वही ठीक है, जो अपने अनुयायियों की बात को सुने । जो अपने ऐश्वर्य व ठाटबाट के कारण निचलों के लिए अनभिगम्य हो जाए वह देर तक नेता नहीं बना रह सकता।

६. (उग्रम्) = यह उदात्त प्रकृति का होता है। इसके किसी व्यवहार में कमीनेपन की गन्ध नहीं आती।

७. (ऊतये) = यह सबकी रक्षा के लिए होता है, यह स्वयं अग्रभाग में स्थित होता हुआ औरों का रक्षक बनता है। यह रणाङ्गण से कोसों दूर बैठा हुआ तार नहीं खेंचा करता । इसका सूत्र होता है “At the head of the army”.

८. (समत्सु) = युद्धों में यह (वृत्राणि) = हमारी उन्नति को आवृत करनेवाले शत्रुओं को (ध्नन्तम्) = मारनेवाला होता है और

९. (संजित धनानि) = उपादेय धनों का जीतनेवाला होता है।

इन उल्लिखित विशेषताओं से बढ़कर इसकी विशेषता यह होती है कि यह पक्षपातशून्य होकर सभी के हित की भावना से क्रियाशील होता है, अतः यह 'विश्वामित्र' कहलाता है। इस प्रकार प्रभु की क्रियात्मक दृश्य स्तुति करनेवाला अपने चरित्र से प्रभु का गायन करनेवाला 'गाथिन:' है।

भावार्थ -

 प्रभु करें कि हम अपने जीवन को उन्नत व प्रकृष्ट ज्ञानवाला बनाकर औरों को उत्तम नेतृत्व देनेवाले बन सकें।

इस भाष्य को एडिट करें
Top