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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 342
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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गा꣡य꣢न्ति त्वा गाय꣣त्रि꣡णोऽर्च꣢꣯न्त्य꣣र्क꣢म꣣र्कि꣡णः꣢ । ब्र꣣ह्मा꣡ण꣢स्त्वा शतक्रत꣣ उ꣢द्व꣣ꣳश꣡मि꣢व येमिरे ॥३४२॥

स्वर सहित पद पाठ

गा꣡य꣢꣯न्ति । त्वा꣣ । गायत्रि꣡णः꣢ । अ꣡र्च꣢꣯न्ति । अ꣣र्क꣢म् । अ꣣र्कि꣡णः꣢ । ब्र꣣ह्मा꣡णः꣢ । त्वा꣣ । शतक्रतो । शत । क्रतो । उ꣢त् । वँ꣣श꣢म् । इ꣣व । येमिरे ॥३४२॥


स्वर रहित मन्त्र

गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वꣳशमिव येमिरे ॥३४२॥


स्वर रहित पद पाठ

गायन्ति । त्वा । गायत्रिणः । अर्चन्ति । अर्कम् । अर्किणः । ब्रह्माणः । त्वा । शतक्रतो । शत । क्रतो । उत् । वँशम् । इव । येमिरे ॥३४२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 342
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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पदार्थ -

वेद चार हैं, परन्तु उनमें मन्त्र तीन ही प्रकार के हैं। वे या तो ऋग्मन्त्र हैं या यजुः या फिर साम। इसीलिए ‘त्रयीविद्या' शब्द प्रचलित है। ‘ऋच् स्तुतौ' धातु से बना ऋच् शब्द उन मन्त्रों का वाचक है जोकि पदार्थों का गुणधर्म का वर्णन करते हैं - यही विज्ञान है। इसीलिए ‘ऋग्वेद' विज्ञानवेद-A Book of Natural Sciences है। यजुर्मन्त्र यज्ञों व मानव - कर्त्तव्यों के वर्णन करनेवाले हैं। यजुर्वेद कर्मवेद हैं—A Book on Social Sciences है। साममन्त्र उपासनामन्त्र हैं—इनमें जीव को किस प्रकार प्रभु का स्मरण करना है इस बात का प्रतिपादन है। इन वेदों को समझनेवाले व्यक्तियों में सामन्त्रों से प्रभु का गायन करनेवाले 'गायत्री' हैं- क्योंकि यये मन्त्र गान करनेवालों का त्राण करते हैं। प्रभु का स्मरण इन्हें वासनाओं के आक्रमण से बचाए रखता है - इस तत्त्व को समझते हुए गायत्रिण:- साममन्त्रों से प्रभु का गुणगान के द्वारा अपनी रक्षा करनेवाले ये व्यक्ति त्वा = हे प्रभो! आपको गायन्ति-गाते हैं। अर्किण:-ऋचाओंवाले वैज्ञानिक भी, यह अनुभव करते हुए कि अन्त में सूर्यादि में उस उस शक्ति का आधान करनेवाले आप ही हैं अर्कम्-अर्चना के योग्य आपकी अर्चन्ति= उपासना करते हैं। विज्ञान का गम्भीर अध्ययन आपके प्रति उनकी अटूट श्रद्धा का कारण बनता है। ब्रह्माण:- यज्ञों के करनेवाले ब्रह्मा आदि ऋत्विज [होता, अध्वर्यु, उद्गाता, ब्रह्मा] भी शतक्रतो हे सैकड़ों यज्ञों के करनेवाले प्रभो! (त्वा - आपको ही उद्येमिरे ) = उन्नत करते हैं इव जैसेकि अपरिमित वंशम् = ध्वजदण्ड को, अर्थात् ये याज्ञिक भी पग-पग पर आपकी महिमा का अनुभव करते हैं। किस प्रकार अग्नि की शिखा सदा ऊपर ही जाती है? अग्नि में हव्यद्रव्यों को किस प्रकार सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणों में विभक्त करने की शक्ति है? अग्नि में डाली हुई आहुति किस प्रकार सूर्य तक पहुँचती है ? इस प्रकार ये याज्ञिक यज्ञों में भी आपकी महिमा का अनुभव करते हैं। इनके अनुभव का यही सार है कि आप सर्वोपरि हैं |

क्या कर्मकाण्डी, क्या ज्ञानकाण्डी और क्या उपासनाकाण्डी सभी प्रभु के गुणगान में लगे हैं। प्रभु का यह गुणगान ही इन्हें सदा मधुर इच्छाओंवाला=‘मधुच्छन्दाः’ बनाये रखता है। यह प्रभु का उपासक किसी का वैरी न होकर ‘वैश्वामित्रः’=सभी का स्नेही होता है।

भावार्थ -

हम ‘कर्म, ज्ञान व उपासना’ किसी भी क्षेत्र में विचरते हुए उस प्रभु को न भूलें।

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