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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 356
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣢दी꣣ व꣡ह꣢न्त्या꣣श꣢वो꣣ भ्रा꣡ज꣢माना꣣ र꣢थे꣣ष्वा꣢ । पि꣡ब꣢न्तो मदि꣣रं꣢꣫ मधु꣣ त꣢त्र꣣ श्र꣡वा꣢ꣳसि कृण्वते ॥३५६
स्वर सहित पद पाठय꣡दि꣢꣯ । व꣡ह꣢꣯न्ति । आ꣣श꣡वः꣢ । भ्रा꣡ज꣢꣯मानाः । र꣡थे꣢꣯षु । आ । पि꣡ब꣢꣯न्तः । म꣣दिर꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । त꣡त्र꣢꣯ । श्र꣡वाँ꣢꣯सि । कृ꣣ण्वते ॥३५६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदी वहन्त्याशवो भ्राजमाना रथेष्वा । पिबन्तो मदिरं मधु तत्र श्रवाꣳसि कृण्वते ॥३५६
स्वर रहित पद पाठ
यदि । वहन्ति । आशवः । भ्राजमानाः । रथेषु । आ । पिबन्तः । मदिरम् । मधु । तत्र । श्रवाँसि । कृण्वते ॥३५६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 356
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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विषय - यहाँ और वहाँ
पदार्थ -
(रथेषु) = शरीररूप रथों में जुते हुए ये घोड़े (यत्) = जब (ई) = अवश्य (आवहन्ति) = सर्वथा हमें लक्ष्य की ओर ले-चलते हैं तो वहाँ लक्ष्य स्थान पर पहुँचाकर हमारे यश का कारण बनते हैं। ‘ये घोड़े कैसे हैं?' १. (आशवः) = [अश्नुते अध्वानम्] मार्ग को शीघ्रता से व्यापनेवाले हैं। कर्मेन्द्रियाँरूप ये घोड़े बड़े चुस्त [active] हैं। तीव्र गति से हमें लक्ष्य की ओर ले चलते हैं। २. (भ्राजमाना:) = [भ्राज-दीप्तौ] ये दीप्त हैं, चमकते हैं। ज्ञानेन्द्रियाँरूप घोड़े अपने ज्ञान-प्राप्तिरूप व्यापार को अच्छी प्रकार करते हुए इस रथ को सदा प्रकाशमय रखते हैं। वो ही प्रकार के घोड़े हैं— शीघ्रता से कार्य करनेवाले व चमकनेवाले। इन्हें ही कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ कहा जाता है। पहले शक्ति की वृद्धि का कारण बनते हैं तो दूसरे ज्ञान की वृद्धि का । वस्तुतः जीवन के निर्माण में ये ही दो मुख्य तत्त्व हैं - शक्ति और ज्ञान । ये ही 'ब्रह्म व क्षत्र' कहलाते हैं। संसार भी तो दृढ़ [शक्तिशाली] पृथिवी व उग्र तेजस्वी = प्रकाशमय द्युलोक में ही समाप्त हो जाता है। यहाँ रथ शब्द 'रह' धातु से बनकर, 'वहन्ति' क्रिया स्वयं तथा आशवः विशेषण ‘अश् व्याप्तौ' से बनकर गतिशीलता का उपदेश दे रहे हैं। ज्ञान के लिए भी तो कर्म आवश्यक है। "
इस प्रकार अपनी इस जीवन यात्रा में जब हम इस सुन्दर रथ पर बैठकर उन उत्तम घोड़ों के द्वारा आगे बढ़ते हैं तो हमें चाहिए कि (पिबन्तो मदिरं मधु) = आनन्द देनेवाले मधु का पान करते हुए आगे बढ़ें। हम जिस-जिस के सम्पर्क में आएँ उसके गुण को ग्रहण करते हुए आगे बढ़ते चलें । 'पिबन्त:' में पीते हुए यह नैरन्तर्य भावना हमें यही तो कह रही है कि रुको नहीं। मधु लेते हुए चलेंगे तो हम भी मधुक्षिकाओं की भाँति किसी उत्तम वस्तु का निर्माण कर पाएँगे और ऐसा करनेवाले ही (तत्र) = वहाँ परलोक में प्रभु चरणों में लौटने पर (श्रवांसि) = यशों को (कृण्वते) = करते हैं। उनकी कीर्ति होती है। परलोक में कीर्ति ही इस प्रकार जीवन बनाने का लाभ नहीं, यहाँ भी यह जीवन ‘मदिरम्' आनन्दमय होता है। ‘श्यावश्व हमारे इन्द्रियरूप अश्व श्याव [श्यैङ्- गतौ] गतिमय हों और हम ' बनें। तथा काम-क्रोध तथा लोभ से ऊपर उठकर हम 'अ-त्रि' [आत्रेय] बनें।
भावार्थ -
गुण ग्रहण करते हुए हम चलें।
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