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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 397
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - आदित्याः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡पामी꣢꣯वा꣣म꣢प꣣ स्रि꣢ध꣣म꣡प꣢ सेधत दुर्म꣣ति꣢म् । आ꣡दि꣢त्यासो यु꣣यो꣡त꣢ना नो꣣ अ꣡ꣳह꣢सः ॥३९७॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡प꣢꣯ । अ꣡मी꣢꣯वाम् । अ꣡प꣢ । स्रि꣡ध꣢꣯म् । अ꣡प꣢꣯ । से꣣धत । दुर्मति꣢म् । दुः꣣ । मति꣢म् । आ꣡दि꣢꣯त्यासः । आ । दि꣣त्यासः । युयो꣡त꣢न । यु꣣यो꣡त꣢ । न꣣ । नः । अँ꣡ह꣢꣯सः ॥३९७॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामीवामप स्रिधमप सेधत दुर्मतिम् । आदित्यासो युयोतना नो अꣳहसः ॥३९७॥
स्वर रहित पद पाठ
अप । अमीवाम् । अप । स्रिधम् । अप । सेधत । दुर्मतिम् । दुः । मतिम् । आदित्यासः । आ । दित्यासः । युयोतन । युयोत । न । नः । अँहसः ॥३९७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 397
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
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विषय - रोग, कुत्सा व दुर्मति का यावन
पदार्थ -
हे (आदित्यासः) = आदित्यो! निरन्तर क्रियाशीलता का उपदेश देनेवाले सूर्यो! (न:) = हमें अपनी प्रेरणा से क्रियाशील बनाकर (अहंस:) = कुटिलता से (युयोतन) = पृथक करो । तमोगुणी आलसी पुरुष अत्याधिक बदले की भावना से चलता है। वह कुटिलता की दिशा में ही सोचता है। हम आदित्यों की प्रेरणा से क्रियाशील बनकर कुटिलता से दूर हों। जिस प्रकार सूर्य सतत् क्रियाशील है इसी प्रकार हम भी क्रियाशील बनें। क्रियाशीलता ही हमें कुटिलता से बचा सकती है।
कुटिलता से बचने के साथ क्रियाशीलता के परिणामस्वरूप ये आदित्य (अभीवाम्) = ‘रोगकृमियों को हमसे (अपसेधत) = दूर करते हैं। अकर्मण्य व आलसी शरीर में ही बिमारियाँ आती हैं। व्यायामशील के समीप तो बिमारियाँ उसी प्रकार नहीं आती जैसे कि गरुड़ के समीप सर्प। हे आदित्यो! (स्त्रिधम्) = कुत्सा को, हिंसा को औरों के प्रति द्वेषादि की भावना को हमसे दूर करो। स्तुति - निन्दा में वे ही व्यक्ति चलते हैं जो अकर्मण्य होते हैं। इसी प्रकार (दुर्मतिम्) = अशुभ विचारों को हमसे दूर करो। क्रियाशील व्यक्ति का मस्तिष्क भी कभी दूषित विचारधाराओं को अपने मस्तिष्क में स्थान नहीं देता। इसीलिए हमें 'इरिम्बिठि' बनना ही चाहिए। हम थोड़ा-थोड़ा करके इस बात का अभ्यास करें कि हमारे हृदय कर्म-संकल्प वाले हों ।
भावार्थ -
मैं आदित्यों से क्रिया की प्रेरणा को प्राप्त करके रोग-कुत्सा व दुर्गति से दूर हो जाऊँ।
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