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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 398
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिपदा विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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पि꣢बा꣣ सो꣡म꣢मिन्द्र꣣ म꣡न्द꣢तु त्वा꣣ यं꣡ ते꣢ सु꣣षा꣡व꣢ हर्य꣣श्वा꣡द्रिः꣢ । सो꣣तु꣢र्बा꣣हु꣢भ्या꣣ꣳ सु꣡य꣢तो꣣ ना꣡र्वा꣢ ॥३९८॥

स्वर सहित पद पाठ

पि꣡ब꣢꣯ । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣣न्द्र । म꣡न्द꣢꣯तु । त्वा꣣ । य꣢म् । ते꣣ । सुषा꣡व꣢ । ह꣣र्यश्व । हरि । अश्व । अ꣡द्रिः꣢꣯ । अ । द्रिः꣣ । सोतुः꣢ । बा꣣हु꣡भ्या꣢म् । सु꣡य꣢꣯तः । सु । य꣣तः । न꣢ । अ꣡र्वा꣢꣯ ॥३९८॥


स्वर रहित मन्त्र

पिबा सोममिन्द्र मन्दतु त्वा यं ते सुषाव हर्यश्वाद्रिः । सोतुर्बाहुभ्याꣳ सुयतो नार्वा ॥३९८॥


स्वर रहित पद पाठ

पिब । सोमम् । इन्द्र । मन्दतु । त्वा । यम् । ते । सुषाव । हर्यश्व । हरि । अश्व । अद्रिः । अ । द्रिः । सोतुः । बाहुभ्याम् । सुयतः । सु । यतः । न । अर्वा ॥३९८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 398
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
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पदार्थ -

वेद में स्थान-स्थान पर हम यह देखते हैं कि जहाँ कहीं शरीर, मन व बुद्धि के उत्थान की प्रार्थना है वहाँ प्रभु ने 'सोमपान' का निर्देश किया है। चारों वेदों की समाप्ति पर अथर्व के २०वें काण्ड में ('पिब सोमं ऋतुना') = यही उपदेश है कि समय रहते सोमपान करना। युवावस्था में ही सोमरक्षा का ध्यान करना । प्रस्तुत मन्त्र में भी प्रभु यही कहते हैं कि यदि तूने ‘रोग-कुत्सा व दुर्गति' को दूर करना है तो हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू (सोमं पिबा) = सोम का पान कर | यह सोम (त्वा) = तुझे मन्दतु हर्षित करे। इसके कारण तेरा जीवन उल्लासमय हो। उस सोम को तू पी (यम्) = जिसे ते तेरे लिए (हर्यश्वाद्रिः) = हरि=मनुष्यों के हृदय में स्थित होकर प्रेरणा देनेवाले और वज्रहस्त प्रभु ने (सुषाव) = उत्पन्न किया है। प्रभु प्रेरणा देते हैं, पर लाचारी में वज्र प्रहार भी करते हैं। प्रभु के इसी वज्र से वस्तुतः जीव धर्म मे मार्ग पर चलता है।

यह सोम (सोतुः) = जिसके लिए सोम का सवन हुआ है उस जीव के (बाहुभ्याम्) = हाथों से निरन्तर किये जानेवाले प्रयत्नों से [बाह्र प्रयत्ने] (सुयतः) = उत्तम प्रकार से नियन्त्रित होता है। निरन्तर प्रयत्न में लगा हुआ व्यक्ति वासनाओं का शिकार नहीं होता, और इस प्रकार सोम की रक्षा में समर्थ होता है। सोम की रक्षा करके यह अर्वान- अश्व की भाँति शक्तिशाली होता है। अश्व शक्ति का प्रतीक है। यह सोमपान करनेवाला भी अश्व-शक्ति का पुञ्ज बनता है।

सोम को सुयत=उत्तम प्रकार से नियन्त्रित करनेवाला यह सचमुच वसिष्ठ वशियों में सर्वश्रेष्ठ है। इस वशित्व के लिएए ही यह ‘मैत्रावरुणि' प्राणापान की साधनावाला बना है।

भावार्थ -

‘सोमपान’ यह प्रभु का अन्तिम निर्देश है- मैं उसके पालन को अपना पवित्र कार्य समझँ।

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