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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 399
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - इन्द्रः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5
अ꣣भ्रातृव्यो꣢ अ꣣ना꣡ त्वमना꣢꣯पिरिन्द्र ज꣣नु꣡षा꣢ स꣣ना꣡द꣢सि । यु꣣धे꣡दा꣢पि꣣त्व꣡मि꣢च्छसे ॥३९९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भ्रातृव्यः꣢ । अ꣣ । भ्रातृव्यः꣢ । अ꣣ना꣢ । त्वम् । अ꣡ना꣢꣯पिः । अन् । आ꣣पिः । इन्द्र । जनु꣡षा꣢ । स꣣ना꣡त् । अ꣣सि । युधा꣢ । इत् । आ꣣पित्व꣢म् । इ꣣च्छसे ॥३९९॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्रातृव्यो अना त्वमनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि । युधेदापित्वमिच्छसे ॥३९९॥
स्वर रहित पद पाठ
अभ्रातृव्यः । अ । भ्रातृव्यः । अना । त्वम् । अनापिः । अन् । आपिः । इन्द्र । जनुषा । सनात् । असि । युधा । इत् । आपित्वम् । इच्छसे ॥३९९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 399
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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विषय - [ जीव स्वभावतः पवित्र है ] तीन प्रकार का युद्ध
पदार्थ -
प्रभु जीव से कहते हैं कि (इन्द्र) = हे जीवात्मन्! (त्वम्) = तू (जनुषा) = जन्म से (सनात्) = अनादिकाल से (अभ्रातृव्य) = शत्रु से रहित (अस:) है (अना) = [नृ= नेता] नेता से रहित है और (अनापि असिः) = [आपि=a friend] मित्र से रहित है। संसार में वैयक्तिक संघर्षों में ईर्ष्या-द्वेष यहाँ तक बढ़ जाता है कि भाई-भाई नहीं रह जाता, वह भ्रातृव्य - शत्रु बन जाता है । इन युद्धों में पड़कर मनुष्य का जीवन अशान्त हो जाता है। उसकी शक्ति अपने उत्थान में न लगकर दूसरों को गिराने में लगती है। इन वैयक्तिक युद्धों के द्वारा वह कितने ही भ्रातृव्यों को पैदा कर लेता है।
इसी प्रकार कई बार राष्ट्रों के परस्पर हित टकराते से प्रतीत होते हैं - या एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को स्वार्थवश दबाना चाहता है तो उस समय राष्ट्रीय हित की भावना [देशभक्ति= Patriotism] राष्ट्रों को परस्पर लड़ा देती है। अपने प्राणों को हथेली पर लेकर देशभक्त लोग एक दूसरे को कुचल डालने के लिए, और अपने राष्ट्र के गौरव की स्थापना में तुल जाते हैं। इस कार्य के लिए उन्हें अपना एक नेता चुनना पड़ता है। यह जैसा - जैसा कहता है वैसा-वैसा ही ये अनुयायिवर्ग करता है। ये सब इन युद्धों के कारण ‘ना'–नेतावाला हो जाते हैं।
इन दोनों युद्धों के अतिरिक्त एक युद्ध और भी है, और यवह युद्ध हृदयस्थली पर चलनेवाला दैवी व आसुरी वृत्तियों का संघर्ष है। इसे ही देवासुर संग्राम भी कहते हैं। इस
देवासुर संग्राम में हमें काम बड़ा प्रमाथि व कुचल देनेवाला दिखता है = क्रोध अजय्य-सा प्रतीत होता है। बार-बार असमर्थ होकर हम उस अचिन्य शक्ति की ओर झुकते हैं और उससे कहते हैं कि “त्वया स्विद युजावयम्" - तुझ से मिलकर ही हम इन्हें जीत सकेंगे। सचमुच इस आध्यात्मिक (युधा इत्) = युद्ध के द्वारा ही, प्रभु कहते हैं कि हे जीव! (इच्छसे) = चाहता है।
वैयक्तिक ईर्ष्या द्वेष की लड़ाईयों के द्वारा भ्रातृव्यों को, राष्ट्र व युद्धों के द्वारा नेताओं को और इस आध्यात्मिक युद्ध के द्वारा मनुष्य प्रभु की मित्रता को चाहता है। हम तो आध्यात्मिक संग्राम के द्वारा प्रभु की मित्रता को प्राप्त करने का प्रयत्न करें। जिसने भी अपने जीवन में इन्हीं संग्रामों को महत्त्व दिया उसी ने वस्तुतः अपने कर्त्तव्य का उत्तम पालन किया। यइस संसार नाटक में अपने कर्त्तव्य भाग का उत्तम प्रकार से भरण करने से वह 'सोभरि' कहलाया। ऐसा वह कण-कण करके कर पाया सो वह 'काण्व' हुआ।
भावार्थ -
आध्यात्मिक संग्राम के द्वारा हम प्रभु के मित्र बनें।
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