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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 40
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
4
अ꣢ग्ने꣣ वि꣡व꣢स्वदु꣣ष꣡स꣢श्चि꣣त्र꣡ꣳ राधो꣢꣯ अमर्त्य । आ꣢ दा꣣शु꣡षे꣢ जातवेदो वहा꣣ त्व꣢म꣣द्या꣢ दे꣣वा꣡ꣳ उ꣢ष꣣र्बु꣡धः꣢ ॥४०॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ग्ने꣢ । वि꣡व꣢꣯स्वत् । वि । व꣣स्वत् । उष꣡सः꣢ । चि꣣त्र꣢म् । रा꣡धः꣢꣯ । अ꣣मर्त्य । अ । मर्त्य । आ꣢ । दा꣣शु꣡षे꣢ । जा꣣तवेदः । जात । वेदः । वह । त्व꣢म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । दे꣣वा꣢न् । उ꣣षर्बु꣡धः꣢ । उ꣣षः । बु꣡धः꣢꣯ ॥४०॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रꣳ राधो अमर्त्य । आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाꣳ उषर्बुधः ॥४०॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने । विवस्वत् । वि । वस्वत् । उषसः । चित्रम् । राधः । अमर्त्य । अ । मर्त्य । आ । दाशुषे । जातवेदः । जात । वेदः । वह । त्वम् । अद्य । अ । द्य । देवान् । उषर्बुधः । उषः । बुधः ॥४०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 40
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
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विषय - ज्ञान के लिए ज्ञानियों का सङ्ग
पदार्थ -
हे (अग्ने अमर्त्य) = पूर्ण उन्नत, अमरणधर्मा प्रभो । (जातवेदः) = सर्वज्ञ परमात्मन्! मैं भी आप- - जैसा अग्नि, अमर्त्य और ज्ञानी बन सकूँ, इसलिए (उषसः) = अज्ञान के [उच्छति विवासयति पथ्यापथ्यविचारमिति] (विवस्वत्) = निवर्तक [विवस्वान् - विवासनवान्] (चित्रम्) = ज्ञान के दाता [चित्+र] (राध: )=ब्रह्मज्ञानरूप धन को (दाशुषे) = मुझ समर्पण करनेवाले के लिए (आवह) =प्राप्त कराइए। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए (त्वम्) = आप मुझे (उषर्बुधः) प्रातः जागरणशील अथवा अविद्यारूप नींद से जो जाग्रत् हो चुके हैं, उन (देवान्) = विद्वानों को (आवह) = प्राप्त कराइए।
मनुष्य में ‘अग्नि, अमर्त्य व जातवेद' बनने की कामना होनी चाहिए। (अग्नि) = प्रगतिशील वह है जो ‘अमर्त्य' हो, उन्नति करते-करते मरणधर्मा न रहे अर्थात् मुक्त हो जाए। अमर्त्य वह बनता है जो कि (जातवेद) = ज्ञानी हो । ज्ञानी वह बनता है जो कि ज्ञानियों के सम्पर्क में आ पाये। ज्ञानी वे बनते हैं जो कि उषर्बुध होते हैं। ऐसा बोध यहाँ मन्त्र के शब्दों का क्रम दे रहा है। प्रभु की कृपा से हम भी ज्ञानी बनकर इस मन्त्र के ऋषि • 'प्रस्कण्व' उत्तम मेधावी बनें।
भावार्थ -
ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम सदा ज्ञानियों के सम्पर्क में रहें।
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