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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 417
ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - विश्वेदेवाः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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च꣣न्द्र꣡मा꣢ अ꣣प्स्वा꣢३꣱न्त꣡रा सु꣢꣯प꣣र्णो꣡ धा꣢वते दि꣣वि꣢ । न꣡ वो꣢ हिरण्यनेमयः प꣣दं꣡ वि꣢न्दन्ति विद्युतो वि꣣त्तं꣡ मे꣢ अ꣣स्य꣡ रो꣢दसी ॥४१७॥

स्वर सहित पद पाठ

च꣣न्द्र꣡माः꣢ । च꣣न्द्र꣢ । माः꣣ । अप्सु꣢ । अ꣣न्तः꣢ । आ । सु꣣पर्णः꣢ । सु꣣ । पर्णः꣢ । धा꣣वते । दिवि꣢ । न । वः꣣ । हिरण्यनेमयः । हिरण्य । नेमयः । पद꣢म् । वि꣣न्दन्ति । विद्युतः । वि । द्युतः । वित्त꣢म् । मे꣣ । अस्य꣢ । रो꣣दसीइ꣡ति꣢ ॥४१७॥


स्वर रहित मन्त्र

चन्द्रमा अप्स्वा३न्तरा सुपर्णो धावते दिवि । न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥४१७॥


स्वर रहित पद पाठ

चन्द्रमाः । चन्द्र । माः । अप्सु । अन्तः । आ । सुपर्णः । सु । पर्णः । धावते । दिवि । न । वः । हिरण्यनेमयः । हिरण्य । नेमयः । पदम् । विन्दन्ति । विद्युतः । वि । द्युतः । वित्तम् । मे । अस्य । रोदसीइति ॥४१७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 417
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

हमारे जीवन में दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं। पहली तो यह कि (चन्द्रमा:) = हमारा मन [चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशत्] सदा (अप्सु अन्तरा) = व्यापक कर्मों में स्थित रहे। दूसरी यह कि (सुपर्णः) = अपना पालन करनेवाला जीव (दिवि) = प्रकाशमय ज्ञान में (धावते) = गतिशील होता है और उसमें सदा स्नान करता हुआ अपने को पवित्र करता है। अध्यात्म में 'चन्द्रमा' का अर्थ मन होता है। यहाँ चन्द्रमा शब्द का प्रयोग इस उद्देश्य से किया गया है कि [चदि आह्लादे] हम जिन कार्यों को करें उन्हें बड़े आह्लाद पूर्वक करें। प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ कार्य ही उत्तम फल पैदा करता है। दिन भर कार्यों में प्रसन्नता पूर्वक रमे रहने से हम वासनाओं के शिकार कभी नहीं होते।

जीवात्मा का नाम ‘सुपर्ण' है क्योंकि वह उत्तम प्रकार से आसुरवृत्तियों के आक्रमण से अपने को बचाने का प्रयत्न करता है, उसी के लिए यह ज्ञान की नदी में स्नान करता है और अपने को शुद्ध बनाता है।

प्रभु कहते हैं कि हे जीवों! (वः) = तुममें से (हिरण्यनेमयः) = स्वर्ण की परिधिवाले लोग, जो कि धन के चक्र में ही फँसे हुए हैं, वे (विद्युतः) = उस विशेष ज्ञानी के (पदम्) = स्थान को (न विन्दन्ति) = नहीं प्राप्त कर पाते। अर्थ में आसक्त को धर्म का ज्ञान नहीं होता। धन तो अन्धा है।

जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि मे (रोदसी) = मेरे द्युलोक और पृथिवीलोक, अर्थात् मेरा मस्तिष्क व शरीर तो (अस्य वित्तम्) = इस पद को अवश्य पानेवाले हों। मैं अपने सब कोशों की ऐसी साधना करूँ कि मैं आप का ज्ञानी भक्त बन सकूँ। यह ज्ञानी भक्त ही प्रभु को प्राप्त करनेवालों में सर्वोत्तम है- 'आप्त्य' है, यह काम-क्रोध-लोभ सभी को तैर चुका है–‘त्रि-त' बन गया है। त्रिविध कष्टों से भी यह ऊपर उठ गया है। ज्ञान, कर्म, उपासना तीनों का इसने अपने में विस्तार किया है।

भावार्थ -

मेरा मन सदा प्रसन्नतापूर्वक कर्मों में लगा रहे और मैं ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सतत यत्नशील रहूँ। 

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