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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 418
ऋषिः - अवस्युरात्रेयः
देवता - आश्विनौ
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प्र꣡ति꣢ प्रि꣣य꣡त꣢म꣣ꣳ र꣢थं꣣ वृ꣡ष꣢णं वसु꣣वा꣡ह꣢नम् । स्तो꣣ता꣡ वा꣢मश्विना꣣वृ꣢षि꣣ स्तो꣡मे꣢भिर्भूषति꣣ प्र꣢ति꣣ मा꣢ध्वी꣣ म꣡म꣢ श्रुत꣣ꣳ ह꣡व꣢म् ॥४१८॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣡ति꣢꣯ । प्रि꣣य꣡त꣢मम् । र꣡थ꣢꣯म् । वृ꣡ष꣢꣯णम् । व꣣सुवा꣡ह꣢नम् । वसु । वा꣡ह꣢꣯नम् । स्तो꣣ता꣢ । वा꣣म् । अश्विनौ । ऋ꣡षिः꣢꣯ । स्तो꣡मे꣢꣯भिः । भू꣣षति । प्र꣡ति꣢ । माध्वी꣣इ꣡ति꣢ । म꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तम् । ह꣡व꣢꣯म् ॥४१८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति प्रियतमꣳ रथं वृषणं वसुवाहनम् । स्तोता वामश्विनावृषि स्तोमेभिर्भूषति प्रति माध्वी मम श्रुतꣳ हवम् ॥४१८॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रति । प्रियतमम् । रथम् । वृषणम् । वसुवाहनम् । वसु । वाहनम् । स्तोता । वाम् । अश्विनौ । ऋषिः । स्तोमेभिः । भूषति । प्रति । माध्वीइति । मम । श्रुतम् । हवम् ॥४१८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 418
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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विषय - रथ का सजाना
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘अवस्यु' है जोकि अपने शरीर आदि की रक्षा की कामनावाला है। यह अपने प्राणापानों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे (अश्विनौ) = प्राणापानों! (वाम्) = आप के (स्तोमेभिः) = एकत्रीकरण के द्वारा [Asemblage ] – अथवा आपकी सम्पत्ति के द्वारा [स्तोमम्=riches] (स्तोता) = प्रभु का स्तवन करनेवाला, (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा (प्रियतमम्) = इस अत्यन्त प्रिय-तर्पण के योग्य (वृषणम्) = शक्तिशाली (वसुवाहनम्) = अष्ट वसुओं के वाहनभूत (रथम्) = इस शरीररूप रथ को (प्रतिभूषति) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में अलंकृत करता है। यह शरीर प्रभु की ओर से दिया गया रथ है, जिससे जीव अपनी जीवनयात्रा पूरी करनी है। यह रथ तर्पण के योग्य है [प्री-तर्पण], इसमें होनेवाली कमी को तत्काल दूर करना चाहिए। शरीर की इच्छा को पूरा करना ही चाहिए। वह तो शरीर की आवश्यकता है; मन की इच्छा का संयम करना आवश्यक है क्योंकि उसे पूरा करने में लगें तो हम शरीर को हानि पहुँचा लेते हैं। मनः संयम व शरीर तर्पण से यह शरीररूप रथ शक्तिशाली [वृषणम्] बनता है। यह अष्ट वसु-अष्ट धातुएँ–रस, रुधिर, मांस, मेदस्, अस्थि, मया, वीर्य तथा ओजस् वाहनभूत हैं। प्रभु का स्तोता व तत्त्वज्ञानी इस शरीर को प्राणों की साधना के द्वारा स्वास्थ्य व सौन्दर्य से अलंकृत करता है। जहाँ कहीं भी प्राणों का संयम किया वहीं उसके अङ्ग निर्मल व स्वस्थ हो जाते हैं। यह स्तोता ऋषि जब जिस अङ्ग में प्राणों को एकत्रित करता है उस प्राणों के स्तोम से [प्राणायामैर्दहेद् दोषान्] उस स्थान में उत्पन्न दोषों को जला देता है। वे अङ्ग स्वास्थ्य की ज्योति से चमक उठते हैं। एवं, ये प्राणापान कितने महत्त्वपूर्ण, मधुर व सुन्दर हैं। अवस्यु कहता है कि (माध्वी) = हे मधुर प्राणापानो! मधुतुल्य महिमावाले प्राणापानो। (ममहवं प्रति श्रुतम्) = मेरी इस प्रार्थना को सुनो। मैं तुम्हारी कृपा से इस रथ को शक्तिशाली व वसुओं का वाहन बना पाऊँ। अपने मन को प्रभु के स्तवन में लगाऊँ और मस्तिष्क को ज्ञानज्योति से परिपूर्ण करके तत्त्वद्रष्टा बन पाऊँ। यह सब प्राणसाधना से ही होता है। प्राणसाधना करनेवाला ही 'अवस्य' बन पाता है।
भावार्थ -
मेरी प्राण- साधना मेरे शरीर को दृढ़, मन को प्रभुप्रवण, मस्तिष्क को तीव्र ज्ञान ज्योति से जगमगाता हुआ बनाए ।
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