Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 46
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
4
शे꣢षे꣣ वने꣡षु꣢ मा꣣तृ꣢षु꣣ सं꣢ त्वा꣣ म꣡र्ता꣢स इन्धते । अ꣡त꣢न्द्रो ह꣣व्यं꣡ व꣢हसि हवि꣣ष्कृ꣢त꣣ आ꣢꣫दिद्दे꣣वे꣡षु꣢ राजसि ॥४६॥
स्वर सहित पद पाठशे꣡षे꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । मा꣣तृ꣡षु꣢ । सम् । त्वा꣣ । म꣡र्ता꣢꣯सः । इ꣣न्धते । अ꣡त꣢꣯न्द्रः । अ । त꣣न्द्रः । ह꣣व्यम् । व꣣हसि । हविष्कृ꣡तः꣢ । ह꣣विः । कृ꣡तः꣢꣯ । आत् । इत् । दे꣣वे꣡षु꣢ । रा꣣जसि ॥४६॥
स्वर रहित मन्त्र
शेषे वनेषु मातृषु सं त्वा मर्तास इन्धते । अतन्द्रो हव्यं वहसि हविष्कृत आदिद्देवेषु राजसि ॥४६॥
स्वर रहित पद पाठ
शेषे । वनेषु । मातृषु । सम् । त्वा । मर्तासः । इन्धते । अतन्द्रः । अ । तन्द्रः । हव्यम् । वहसि । हविष्कृतः । हविः । कृतः । आत् । इत् । देवेषु । राजसि ॥४६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 46
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
Acknowledgment
विषय - प्रभु का निवास किनमें?
पदार्थ -
हे प्रभो! आप (वनेषु) = वनों में [वन = to win] - विजयशील पुरुषों में और (मातृषु) = निर्माण करनेवालों में (शेषे ) = शयन करते हैं, निवास करते हैं। वेद में निवास करने के लिए 'शयन करना' इसका प्रयोग बहुधा पाया जाता है। पुरि शेते = पुरुष:- जीव का नाम है- शरीररूपी नगरी में शयन करनेवाला।
जो हृदय-स्थली में चलनेवाले देवासुर संग्राम में असुरों से पराजित नहीं हो जाते, वे विजयी हैं। वे असुरों का संहार करते हैं वस्तुतः वे ही सदाचारी हैं। 'विजय ही सदाचार है, पराजय ही अनाचार है।' अपराजित विजयी पुरुषों में ही प्रभु रहते हैं तथा (माता) = निर्माताओं में उनका निवास है। निर्माता पुरुष ध्वंसक वृत्तिवाले नहीं होते। ('तृणं न छिन्द्यात्') यह मनु-वाक्य इस वृत्ति को न पनपने देने के लिए ही लिखा गया है। ये पुरुष रोग से घृणा करते हैं, रोगी से नहीं। ये पाप से घृणा करते हैं पापी से नहीं। ये पापी को निष्पाप बनाने का प्रयत्न करते हैं। ये शत्रु से घृणा नहीं करते, अपितु उसकी शत्रुता की भावना को दूर करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। ऐसे निर्माणशील पुरुषों में प्रभु का निवास होता है। ।
(मर्तास:)=[मृङ् प्राणत्यागे] जो धन व समय का ही नहीं, अपने छोटे-मोटे सुखों का ही नहीं, अपितु अपने प्राणों का भी परित्याग करना सीखते हैं, वे मर्त ही (त्वा) = तुझे (समिन्धते ) = अपने में दीप्त करते हैं। लोक-संग्रह के लिए जो प्राणत्याग कर सकते हैं, उन्हीं में प्रभु का प्रकाश होता है।
(हविष्कृतः) = अपने जीवनों को हविरूप बनानेवालों के (हव्यम्) = देने योग्य पदार्थों को आप (अतन्द्रः) = बिना आलस्य के (वहसि) = प्राप्त कराते हैं। ये आत्मत्यागी लोग भूखे नहीं मरते । वस्तुतः जब ये परमेश्वर की प्रजा के हित में लगते हैं तो प्रभु इनके परिवार के पालने में। बस, इस प्रकार, वन= विजयी - जितेन्द्रिय, (माता)=निर्माता=निर्माण की वृत्तिवाले, (हविष्कृत्) = अपने जीवन को हविरूप बना देनेवाला मनुष्य, जब मनुष्य श्रेणी से ऊपर उठकर देव बन जाता है, (आत् इत्) = तब निश्चय से इन (देवेषु) = देवों में आप (राजसि) = शोभायमान होते हैं। उनकी एक-एक क्रिया में प्रभु की ज्योति दीखती है। —
जीवन का पूर्ण विकास व परिपाक करनेवाले ये व्यक्ति इस मन्त्र के ऋषि ‘भर्ग' होते हैं। ये ही प्रभु की क्रियात्मक भक्ति करने के कारण 'प्रगाथ' [उत्तम गायन करनेवाले ] कहलाते हैं।
भावार्थ -
हम जितेन्द्रिय, निर्माता और प्राणों को प्राजापत्य यज्ञ में उत्सर्ग करनेवाले बनें।
इस भाष्य को एडिट करें