Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 481
ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
5

इ꣡न्दुः꣢ पविष्ट꣣ चे꣡त꣢नः प्रि꣣यः꣡ क꣢वी꣣नां꣢ म꣣तिः꣢ । सृ꣣ज꣡दश्व꣢꣯ꣳ र꣣थी꣡रि꣢व ॥४८१॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्दुः꣢꣯ । प꣣विष्ट । चे꣡त꣢꣯नः । प्रि꣣यः꣢ । क꣣वीना꣢म् । म꣣तिः꣢ । सृ꣣ज꣢त् । अ꣡श्व꣢꣯म् । र꣣थीः꣢ । इ꣣व ॥४८१॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्दुः पविष्ट चेतनः प्रियः कवीनां मतिः । सृजदश्वꣳ रथीरिव ॥४८१॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्दुः । पविष्ट । चेतनः । प्रियः । कवीनाम् । मतिः । सृजत् । अश्वम् । रथीः । इव ॥४८१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 481
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
Acknowledgment

पदार्थ -

इन्दु: मुझे शक्तिशाली बनानेवाला सोम (पविष्ट) = मुझे पवित्र बनाता है। (चेतन:) = यह मुझमें चेतना उत्पन्न करता है - मैं जागरित हो जाता हूँ। इस संसार की अपनी जीवन-यात्रा में मैं सावधान होकर चलता हूँ- नशे में नहीं हो जाता । अपने स्वरूप को पहचानता हूँ - तथा अपने लक्ष्य को भूल नहीं जाता। यह सोम (कवीनां प्रियः) = क्रान्तदर्शियों को प्रीणित करनेवाला होता है। संयमी पुरुष अपने अन्दर तृप्ति व आनन्द का अनुभव करता है। वस्तुतः आनन्द बाह्य वस्तुओं में अनुभव नहीं हो सकता। (मतिः) = यह सोम मुझे मननशील बनाता है - मेरी बुद्धि को तीव्र करता है। यह मननशीलता ही तो वस्तुतः न्याय्यमार्ग से भटकने नहीं देती। इस प्रकार यह संयमी न्याय्यमार्ग से न भटकता हुआ रथी: इव - उत्तम रथी की भाँति (अश्वं सृजत्) = इन्द्रियरूप घोड़ों को इस शरीररूप रथ में जोड़ता है।

रथी सोया हुआ न हो, चेतन हो साथ ही तत्त्वज्ञानियों की दृष्टिवाला होकर अन्दर - ही - अन्दर आनन्द का अनुभव करता हो और वह मननशील भी हो तो कभी भटकने की आशंका थोड़े ही हो सकती है। यह 'कश्यप' है- अपने मार्ग को देखता है और उस मार्ग में आनेवाले विघ्नों को नष्ट कर डालता है। इसलिए तो यह 'मारीच' है- सब विघ्नों को मार डालनेवाला । विघ्नों को दूर कर आगे बढ़ता हुआ यह लक्ष्य स्थान पर पहुँच ही जाता है।

भावार्थ -

मैं सदा जागृत रहूँ - अपने लक्ष्य को भूल न जाऊँ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top