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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 482
ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣡सृ꣢क्षत꣣ प्र꣢ वा꣣जि꣡नो꣢ ग꣣व्या꣡ सोमा꣢꣯सो अश्व꣣या꣢ । शु꣣क्रा꣡सो꣢ वीर꣣या꣡शवः꣢꣯ ॥४८२॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡सृ꣢꣯क्षत । प्र । वा꣣जि꣡नः꣢ । ग꣣व्या꣢ । सो꣡मा꣢꣯सः । अ꣣श्वया꣢ । शु꣣क्रा꣡सः꣢ । वी꣣रया꣢ । आ꣣श꣡वः꣢ ॥४८२॥


स्वर रहित मन्त्र

असृक्षत प्र वाजिनो गव्या सोमासो अश्वया । शुक्रासो वीरयाशवः ॥४८२॥


स्वर रहित पद पाठ

असृक्षत । प्र । वाजिनः । गव्या । सोमासः । अश्वया । शुक्रासः । वीरया । आशवः ॥४८२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 482
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
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पदार्थ -

ये (सोमासः) = सोम (वाजिनः) = ज्ञान को दीप्त करनेवाले हैं, और वाजी होते हुए ये इस शरीररूप रथ को (गव्या) = ज्ञानेन्द्रियों से (प्र असृक्षात्) = अच्छी प्रकार संयुक्त करते हैं। ये सोम ही (शुक्रासः) = शीघ्रता से कार्य करनेवाले होते हुए (अश्वया) = कर्मेन्द्रियों से इस रथ को संसृष्ट करते हैं और अन्त में (आशवः) = सारे शरीर में व्याप्त होनेवाले [अश् व्याप्तौ] ये सोम इसे (वीरया) = वीरता की भावना से युक्त करते हैं। ज्ञानेन्द्रियों के योग से ज्ञान में वृद्धि होती है, कर्मेन्द्रियों के योग से शक्ति की और वीरता की भावना से हृदय में सद्गुणों की । इस प्रकार ये सोम ‘ज्ञान, शक्ति व सगुणों' से हमें आप्यायित करनेवाले होते हैं। मस्तिष्क में ज्ञान, शरीर में शक्ति और हृदय में वीरता व अपतजनम ही तो त्रिविध विकास है। इस विकास का करनेवाला यह ‘कश्यप मारीच' है- तत्त्वज्ञानी भी है, विघ्नों को मारकर आगे बढ़नेवाला भी। 

भावार्थ -

 मैं अपने इस शरीरभूत रथ में इन्द्रियभूत घोड़ों को ठीक से जोड़कर आगे बढ़ता चलूँ।

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