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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 480
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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वृ꣢षा꣣ ह्य꣡सि꣢ भा꣣नु꣡ना꣢ द्यु꣣म꣡न्तं꣢ त्वा हवामहे । प꣡व꣢मान स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् ॥४८०॥

स्वर सहित पद पाठ

वृ꣡षा꣢꣯ । हि । अ꣡सि꣢꣯ । भा꣣नुना꣢ । द्यु꣣म꣡न्त꣢म् । त्वा꣣ । हवामहे । प꣡व꣢꣯मान । स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् । स्वः꣣ । दृ꣡श꣢꣯म् ॥४८०॥


स्वर रहित मन्त्र

वृषा ह्यसि भानुना द्युमन्तं त्वा हवामहे । पवमान स्वर्दृशम् ॥४८०॥


स्वर रहित पद पाठ

वृषा । हि । असि । भानुना । द्युमन्तम् । त्वा । हवामहे । पवमान । स्वर्दृशम् । स्वः । दृशम् ॥४८०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 480
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'भृगु' है - जो अपना परिपाक करता है । यह भृगु तपः:- परिपाक से अपने जीवन को पवित्र करता है। यह कहता है कि हे (पवमान) = मेरे जीवन को पवित्र करनेवाले सोम! तू (हि) = निश्चय से (भानुना) = दीप्ति के साथ (वृषा) = मुझे द्रविण- [पराक्रम] सम्पन्न करनेवाला (असि) = है। सोम के संयम से उत्पन्न शक्ति ज्ञान की दीप्ति से युक्त होती है। सोम शरीर को बलवान बनाता है तो साथ ही मस्तिष्क को भी ज्ञान की दीप्ति से युक्त करता है। शक्ति कार्य करती है तो दीप्ति कार्यों में गलती व मालिन्य नहीं आने देती। भृगु कहते हैं कि हे सोम! (द्युमन्तम्) = दीप्तिवाले (त्वाम्) = तुझे (हवामहे) = हे हम पुकारते हैं। सोम को हम इसलिए चाहते हैं कि यह हमारे जीवन को ('तमसो मा ज्योतिर्गमय') = अन्धकार से प्रकाश की ओर ले-चलता है। पवमान-यह पवित्र करनेवाला तो है ही; सोम तू मुझे असत् से सत् की ओर ले चल। संयमी पुरुष कोई असत्य कार्य नहीं करता। मुझे पवित्र बनाकर हे सोम! तू (स्वः) = उस समय देदीप्यमान् ज्योतिर्मय प्रभु को (दृशम्) = देखने के योग्य बनता है। एवं सोम से मेरे जीवन मे तीन परिणाम होते हैं - द्रविण, दीप्ति व दर्शन | शक्ति [द्रविण] का संचयन करने से हम निर्बलता की अयोग्यता को अपने से दूर करते हैं। यह दर्शन ही हमारे जीवन की अन्तिम साधना है। ('मृत्योर्मा अमृतं गमय') = हे सोम तू मुझे प्रभु का दर्शन कराके मृत्यु से बचाकर अमरता का लाभ कराता है। यह दर्शन मुझे इसलिए प्राप्त हुआ है कि पवमान सोम ने मेरे सब मालिन्य को दूर कर दिया।

भावार्थ -

मैं प्राणसाधना करके 'द्रविण व दीप्तिसम्पन्न' बनकर प्रभु - दर्शन करनेवाला बनूँ।

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