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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 493
ऋषिः - निध्रुविः काश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣣या꣡ प꣢वस्व꣣ धा꣡र꣢या꣣ य꣢या꣣ सू꣢र्य꣣म꣡रो꣢चयः । हि꣣न्वानो꣡ मानु꣢꣯षीर꣣पः꣢ ॥४९३॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣या꣢ । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । य꣡या꣢꣯ । सू꣡र्य꣢꣯म् । अ꣡रो꣢चयः । हि꣣न्वानः꣢ । मा꣡नु꣢꣯षीः । अ꣣पः꣢ ॥४९३॥


स्वर रहित मन्त्र

अया पवस्व धारया यया सूर्यमरोचयः । हिन्वानो मानुषीरपः ॥४९३॥


स्वर रहित पद पाठ

अया । पवस्व । धारया । यया । सूर्यम् । अरोचयः । हिन्वानः । मानुषीः । अपः ॥४९३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 493
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

हे सोम! (अया) = [अनया] इस (धारया) = धारण शक्ति से (पवस्व) = मेरे अन्दर बह या मेरे जीवन को पवित्र कर (यया) = जिससे तू (सूर्यम्) = मेरी चक्षु को [सूर्य: चक्षुर्भूत्वा] (अरोचयः) = दीप्त करता है। सोम से जीवन का धारण तो होता ही है। साथ ही मनुष्य की ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और उसका दृष्टिकोण ठीक हो जाता है। प्रत्येक वस्तु को ठीक रूप में रखने के कारण वह किसी भी वस्तु में आसक्त नहीं होता और न किसी प्राणी के साथ द्वेष की भावनावाला होता है। दृष्टिकोण को ठीक करने से यह (मानुषी:) = मानव हितकारी (अपः) = कर्मों को (हिन्वानः) = प्रेरित करता है। वस्तुत: दृष्टिकोण की विकृति ही मनुष्य को स्वार्थपूर्ण - केवल अपने प्राण-पोषण के कर्मों मे उलझाये रखती है। सोम के संयम का यह परिणाम है कि हमारा दृष्टिकोण ठीक बनता है और हम परार्थ में ही स्वार्थ को सिद्ध होता देखते हैं। हमें परहित के कार्यों में रस आने लगता है।

भावार्थ -

सोम १. जीवन का धारण करता है - हमें दीर्घायुष्य बनाता है, २. हमारी चक्षु को दीप्त कर हमारे दृष्टिकोण को ठीक करता है ३. हमारा झुकाव लोकहित के कार्यों में हो जाता है।

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