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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 494
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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स꣡ प꣢वस्व꣣ य꣢꣫ आवि꣣थे꣡न्द्रं꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे । व꣣व्रिवा꣡ꣳसं꣢ म꣣ही꣢र꣣पः꣢ ॥४९४॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । प꣣वस्व । यः꣢ । आ꣡वि꣢꣯थ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वृ꣣त्रा꣡य꣢ । ह꣡न्त꣢꣯वे । व꣣व्रिवाँ꣡स꣢म् । म꣣हीः꣢ । अ꣣पः꣢ ॥४९४॥


स्वर रहित मन्त्र

स पवस्व य आविथेन्द्रं वृत्राय हन्तवे । वव्रिवाꣳसं महीरपः ॥४९४॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । पवस्व । यः । आविथ । इन्द्रम् । वृत्राय । हन्तवे । वव्रिवाँसम् । महीः । अपः ॥४९४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 494
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

हे सोम! (सः) = वह तू (पवस्व) = मेरे जीवन को पवित्र बना (यः) = जो तू (आविथ) = मेरी रक्षा करता है। यह सोम मुझे काम-क्रोधादि वासनाओं का शिकार होने से बचाता है। सोमी पुरुष न क्रोध करता है न इर्ष्यालु होता है। यह सोम (इन्द्रम्) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव को (आविथ) = [अव भागदुघे] दिव्य शक्ति के भाग - अंश से पूरित करता है। यह इन्द्र (‘वृत्राय हन्तवे) = ज्ञान के आवरणभूत वृत्र- काम को नष्ट कर सके।

परन्तु प्रयत्न तो यह है कि प्रभु की दिव्य शक्ति का यह अंश प्राप्त किसे होता है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (मही: अपः वव्रिवांसम्) = महान् अथवा महनीय-प्रशंसनीय कर्म करनेवाले इन्द्र को यह दिव्य शक्ति प्राप्त हुआ करती है। जो भी व्यक्ति अपने जीवन में किसी महान् कर्म के करने की प्रेरणा लेकर उसे मूर्तरूप देने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है उसी व्यक्ति को प्रभु का यह दिव्यांश प्राप्त हुआ करता है। यह व्यक्ति महान् उद्देश्य से चलने के कारण पार्थिव भोगों में कभी फँसता नहीं - उनकी ओर इसका झुकाव भी नहीं होता, इसलिए इसे 'अ-मही-यु' = पार्थिव भोगों को न चाहनेवाला कहा गया है। शक्तियों के जीर्ण न होने से यह 'आंगिरस' है।

भावार्थ -

मैं महान् कर्म को अपना लक्ष्य बनाऊँ। जिससे मुझमें दिव्यशक्ति का अवतरण हो।
 

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