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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 513
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
3
आ꣡ सो꣢म स्वा꣣नो꣡ अद्रि꣢꣯भिस्ति꣣रो꣡ वारा꣢꣯ण्य꣣व्य꣡या꣢ । ज꣢नो꣣ न꣢ पु꣣रि꣢ च꣣꣬म्वो꣢꣯र्विश꣣द्ध꣢रिः꣣ स꣢दो꣣ व꣡ने꣢षु दध्रिषे ॥५१३॥
स्वर सहित पद पाठआ । सो꣣म । स्वानः꣢ । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । तिरः꣢ । वा꣡रा꣢꣯णि । अ꣣व्य꣡या꣢ । ज꣡नः꣢꣯ । न । पु꣣रि꣢ । च꣣म्वोः꣢꣯ । वि꣣शत् । ह꣡रिः꣢꣯ । स꣡दः꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । द꣣ध्रिषे ॥५१३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सोम स्वानो अद्रिभिस्तिरो वाराण्यव्यया । जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः सदो वनेषु दध्रिषे ॥५१३॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । सोम । स्वानः । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । तिरः । वाराणि । अव्यया । जनः । न । पुरि । चम्वोः । विशत् । हरिः । सदः । वनेषु । दध्रिषे ॥५१३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 513
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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विषय - अदृश्य सोम
पदार्थ -
हे सोम! तू (अद्रिभिः) = अविदरणीय - स्थिर शरीर, मन व मस्तिष्क के द्वारा (आ सु आनः) = सारे शरीर को उत्तमता से प्राणित करनेवाला है। जब यह सोम सारे रुधिर में व्याप्त हो जाता है तो (तिर:) = अदृश्य हो जाता है। सारे शरीर में व्याप्त हुआ हुआ सोम चाहे दिखता नहीं, परन्तु यह (वाराणि) = रोग का निवारण करता है। सोम के शरीर में स्थिर होने पर रोग आ ही नहीं पाते, आ भी जाएँ तो शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। (अव्यया) = इस सोम को प्रभु ने हमारे रक्षण के उद्देश्य से शरीर में रखा है। यह हमारे मन को वासनाओं से बचाता है। वार होने से शरीर को नीरोग रखता है, और ('अ वि अय') = होने से मन को निर्व्यसन'।
(जनः न) = जैसे एक मनुष्य (पुरि) = नगरी में प्रवेश करता है उसी प्रकार यह सोम (चम्वो:विशत्) = द्यावा- पृथिवी में अर्थात् मस्तिष्क व शरीर में प्रवेश करता है। शरीर में प्रवेश कर यह उसे दृढ़ बनाता है, मस्तिष्क में प्रवेश करके उसे तेजस्वी बनाता है। (हरिः) = शरीर व मन के मलों का हरण करके यह उन्हें नीरोग व निर्मल करता है। (सदा उ) = सदा निश्चय से (वनेषु) = वननीय–सेवनीय उत्तम वस्तुओं का (दधिषे) = धारण करता है।
सोम मलों को दूर करता है - सेवनीय वस्तुओं को प्राप्त कराता है। ‘घृत' का ऋणात्मक कार्य मलों का क्षरण है और धनात्मक कार्य 'दीप्ति को प्राप्त करना' [घृ क्षरणदीप्त्योः] । इसी प्रकार सोम का ऋणात्मक कार्य 'मलों का हरण' और धनात्मक कार्य 'वननीय वस्तुओं का प्रापण है'। बुराई को दूर करके अच्छाई को यह प्राप्त कराता है।
भावार्थ -
सोम मेरे शरीर व मस्तिष्क को दृढ़ व उज्ज्वल बनाए ।
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