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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 519
ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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पु꣣नानः꣡ सो꣢म꣣ जा꣡गृ꣢वि꣣र꣢व्या꣣ वा꣢रैः꣣ प꣡रि꣢ प्रि꣣यः꣢ । त्वं꣡ विप्रो꣢꣯ अभवोऽङ्गिरस्तम꣣ म꣡ध्वा꣢ य꣣ज्ञं꣡ मि꣢मिक्ष णः ॥५१९॥

स्वर सहित पद पाठ

पु꣣नानः꣢ । सो꣣म । जा꣡गृ꣢꣯विः । अ꣡व्याः꣢꣯ । वा꣡रैः꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣यः꣢ । त्वम् । वि꣡प्रः꣢꣯ । वि । प्रः꣣ । अभवः । अङ्गिरस्तम । म꣡ध्वा꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣢म् । मि꣣मिक्ष । नः ॥५१९॥


स्वर रहित मन्त्र

पुनानः सोम जागृविरव्या वारैः परि प्रियः । त्वं विप्रो अभवोऽङ्गिरस्तम मध्वा यज्ञं मिमिक्ष णः ॥५१९॥


स्वर रहित पद पाठ

पुनानः । सोम । जागृविः । अव्याः । वारैः । परि । प्रियः । त्वम् । विप्रः । वि । प्रः । अभवः । अङ्गिरस्तम । मध्वा । यज्ञम् । मिमिक्ष । नः ॥५१९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 519
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 5;
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पदार्थ -

हे (सोम) = सोम! तू (पुनान:) = हमारे जीवनों को पवित्र करता है, जागृवि: हमारी चेतना को स्थिर रखता है। संयमी पुरुष ‘अपने स्वरूप व अपने जीवन के लक्ष्य' को कभी भूलता नहीं । इसी का यह परिणाम होता है कि वह कभी भी सांसारिक प्रलोभनों में नहीं फँसता । यह सोम (अव्या) = रक्षण के द्वारा, सब प्रकार के राग-द्वेषादि अशुभ भावों से तथा (वारैः) = सब रोगों के निवारणो के द्वारा (परि- प्रिय:)- हमारे शरीर में सर्वत्र तृप्ति व कान्ति को पैदा करनेवाला है [प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च ] । जिस समय मनुष्य ईर्ष्या-द्वेषादि से दूर होता है तथा शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं होता, उस समय मनुष्य एक अफ्रुत सन्तोष को अनुभव करता है ।

इस प्रकार हे सोम! (त्वम्) = तू (विप्रः अभव) = सब प्रकार की न्यूनताओं को दूर करनेवाला है। तू (अङ्गिरस्तमः) = मुझे अत्यन्त मेधावी बनानेवाला है। अथवा ('ये अङ्गाराः आसन् ते अङ्गिरसोऽभवन्') इस वाक्य के अनुसार तू हमें प्रज्ज्वलित अंगारे के समान देदीप्यमान् व शक्तिसम्पन्न बनानेवाला है। प्रभु के ‘वरेण्य भर्ग'=वरणीय तेज को प्राप्त करके जीव प्रभु के समान ही चमकने लगता है।

इतना तेजस्वी हो जाने के बाद सौन्दर्य इसी में है कि हमारा जीवन नम्र हो, अतः मन्त्र में कहते हैं कि हे सोम! तू (नः) = हमारे जीवन-यज्ञ को [पुरुषो वाव यज्ञः] (मध्वा) = माधुर्य से (मिमिक्ष)=सिक्त कर दे। हमारा जीवन माधुर्यमय हो । हमारी कोई भी क्रिया किसी के लिए कटुता लिए हुए न हो।

भावार्थ -

मैं तेजस्वी व मधुर बनूँ।

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