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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 525
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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ति꣣स्रो꣡ वाच꣢꣯ ईरयति꣣ प्र꣡ वह्नि꣢꣯रृ꣣त꣡स्य꣢ धी꣣तिं꣡ ब्रह्म꣢꣯णो मनी꣣षा꣢म् । गा꣡वो꣢ यन्ति꣣ गो꣡प꣢तिं पृ꣣च्छ꣡मा꣢नाः꣣ सो꣡मं꣢ यन्ति म꣣त꣡यो꣢ वावशा꣣नाः꣢ ॥५२५॥

स्वर सहित पद पाठ

ति꣣स्रः꣢ । वा꣡चः꣢꣯ । ई꣣रयति । प्र꣢ । व꣡ह्निः꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । धी꣣ति꣢म् । ब्र꣡ह्म꣢꣯णः । म꣣नीषा꣢म् । गा꣡वः꣢꣯ । य꣣न्ति । गो꣡प꣢꣯तिम् । गो । प꣣तिम् । पृच्छ꣡मा꣢नाः । सो꣡म꣢꣯म् । य꣣न्ति । मत꣡यः꣢ । वा꣣वशानाः꣢ ॥५२५॥


स्वर रहित मन्त्र

तिस्रो वाच ईरयति प्र वह्निरृतस्य धीतिं ब्रह्मणो मनीषाम् । गावो यन्ति गोपतिं पृच्छमानाः सोमं यन्ति मतयो वावशानाः ॥५२५॥


स्वर रहित पद पाठ

तिस्रः । वाचः । ईरयति । प्र । वह्निः । ऋतस्य । धीतिम् । ब्रह्मणः । मनीषाम् । गावः । यन्ति । गोपतिम् । गो । पतिम् । पृच्छमानाः । सोमम् । यन्ति । मतयः । वावशानाः ॥५२५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 525
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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पदार्थ -

'परा शृणाति इति पराशर : ' = शत्रुओं को सुदूर नष्ट करनेवाला शक्त्य= शक्ति का पुत्र अर्थात् शक्ति का पुञ्ज यह ऋषि (वह्निः) = सब वेदवाणियों का धारण करनेवाला (तिस्रो वाच:) = ऋग्, यजुः, सामरूप तीनों वाणियों को (प्र ईरयति) = प्रेरित करता है। स्वयं उनका निरन्तर उच्चारण करता है और लोगों में उनका प्रचार करता है, लोगों को ज्ञान-कर्म व उपासना तीनों का बड़ा उत्तम उपदेश देता है। (ब्रह्मणः) = उस प्रभु को (ऋतस्य धीतिम्) = सत्य का धारण करनवाली (मनीषम्) = बुद्धि को, ज्ञान को (प्रेरयति) = प्रचारित करता है। प्रभु से दी हुई यह वेदवाणी सत्य का ही धारण करनेवाली है - यह मनुष्य को नियमित जीवन बिताने का [ऋत का] उपदेश देती है। यह पराशर स्वयं उस वेदवाणी का धारण करके औरों को उसका उपदेश देता है। =

१. (गाव:) = वेदवाणियाँ (गोपतिम्) = इन्द्रियों के पति को [गाव:=इन्द्रियाणि] (पृच्छमाना:) = पूछती हुई (यन्ति) = प्राप्त होती हैं। जिस प्रकार कोई व्यक्ति पूछते-पूछते किसी के घर जा पहुँचता है, उसी प्रकार ये वेदवाणियाँ जितेन्द्रिय के समीप पहुँच जाती हैं। दूसरे शब्दों में, यदि मैं जितेन्द्रिय बनूँगा तो ये वेदवाणियाँ मुझे प्राप्त होंगी, इनका अर्थ समझने के लिए जितेन्द्रिय होना आवश्यक है। (मतयः) = यह मननशील मनुष्य (वावशाना:) = प्रभु - प्राप्ति की प्रबल इच्छावाले (सोमं यन्ति) = उस सोम नामक प्रभु को प्राप्त करते हैं। प्रभु सोम हैं, सोम बनकर ही मनुष्य भी उसे प्राप्त करनेवाला होगा।

प्रभु की प्राप्ति के मार्ग में विघ्न तो पग-पग पर आएँगे ही। यह पराशर उन विघ्नों को दूर करता हुआ प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर आगे और आगे बढ़ता चलता है । यह शाक्त्य है-कोई भी विघ्न ऐसा नहीं जिसे यह अपनी शक्ति से दूर न कर पाए।

भावार्थ -

मैं जितेन्द्रिय बनूँ, जिससे वेद वाणियों का आश्रय होऊँ।

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