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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 548
ऋषिः - मनुः सांवरणः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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सो꣡माः꣢ पवन्त꣣ इ꣡न्द꣢वो꣣ऽस्म꣡भ्यं꣢ गातु꣣वि꣡त्त꣢माः । मि꣣त्राः꣢ स्वा꣣ना꣡ अ꣢रे꣣प꣡सः꣢ स्वा꣣꣬ध्यः꣢꣯ स्व꣣र्वि꣡दः꣢ ॥५४८॥

स्वर सहित पद पाठ

सो꣡माः꣢꣯ । प꣣वन्ते । इ꣡न्द꣢꣯वः । अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । गा꣣तुवि꣡त्त꣢माः । गा꣣तु । वि꣡त्त꣢꣯माः । मि꣣त्राः꣢ । मि꣣ । त्राः꣢ । स्वा꣣नाः꣢ । अ꣣रे꣢प꣡सः꣢ । अ꣣ । रेप꣡सः꣢ । स्वा꣣ध्यः꣢꣯ । सु꣣ । आध्यः꣢꣯ । स्व꣣र्वि꣡दः꣢ । स्वः꣣ । वि꣡दः꣢꣯ ॥५४८॥


स्वर रहित मन्त्र

सोमाः पवन्त इन्दवोऽस्मभ्यं गातुवित्तमाः । मित्राः स्वाना अरेपसः स्वाध्यः स्वर्विदः ॥५४८॥


स्वर रहित पद पाठ

सोमाः । पवन्ते । इन्दवः । अस्मभ्यम् । गातुवित्तमाः । गातु । वित्तमाः । मित्राः । मि । त्राः । स्वानाः । अरेपसः । अ । रेपसः । स्वाध्यः । सु । आध्यः । स्वर्विदः । स्वः । विदः ॥५४८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 548
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 8;
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पदार्थ -

पिछले मन्त्र की समाप्ति पर कहा गया है कि हम दिव्यता में आनन्द लेने का प्रयत्न करें। वस्तुतः संसार में दो ही मार्ग हैं - एक दिव्यता का और दूसरा भौतिकता का । ये ही श्रेय व प्रेय कहे गये हैं। हमें इनमें चुनाव करना है। उपनिषद् कहती है कि 'तौ सम्पपरीत्य विविनक्ति धीर:'=धीर पुरुष सब दृष्टिकोणों से इनका विवेक करता है और विवेक करके श्रेय का ग्रहण करता है। प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि भी 'मनु' है - विचारनेवाला है और विचार का ही परिणाम है कि यह 'सांवरण' है= सम्यक् - उत्तम-वरणवाला है - प्रेय को न चुनकर यह श्रेय का ही वरण करता है। यह श्रेयोमार्ग पर चलनेवाला अपने जीवन को निम्न प्रकार से बनाता है -

१. (सोमाः) = ये सौम्य - विनीत होते हैं- विनीतता से ही तो ये उन्नत हैं। अभिमान से इनकी दिव्यता कलंकित नहीं होती।

२. (पवन्ते) = ये गतिशील होते हैं और अपने को पवित्र बनाते हैं। वस्तुतः गतिशीलता ही इनके जीवन को पवित्र करने वाली है।

३. (इन्दवः) = पवित्रता के कारण-भोगग्रसित न होने के कारण ये शक्तिशाली हैं। ४. अस्मभ्यं गातुवित्तमा: हमारे लिए बड़े उत्तम प्रकार से मार्ग का ज्ञान देनेवाले व मार्ग को प्राप्त करानेवाले हैं। इनके शब्द ही नहीं इनका जीवन हमारे लिए पथ-प्रदर्शन का काम करता है।

५. (मित्रा:) =ये सचमुच हमारा हित चाहनेवाले होते हैं हित चाहने के कारण ही इनके वाक्यों का हमारे हृदयों पर विशेष प्रभाव होता है।

६. (स्वाना:) = [सु+आना:] ये अपने उपदेशों से हम सबके अन्दर उत्साह का संचार करते हैं। अत्यन्त पतित भी इनके सम्पर्क में आकर उत्साह से पाप को तैरने मे प्रवृत्त होता है। 

७. (अरेपसः) = स्वयं इनका जीवन निर्दोष होता है। तभी तो औरों को प्रभावित कर पाता है।

८. (स्वाध्यः) = जीवन को निर्दोष बनाने के लिए ये उत्तम ध्यानवाले होते हैं। [सुष्ठु घ्यानवन्तः] प्रभु का ध्यान इन्हें पापों से बचाए रखता है।

९. (स्वर्विदः) = ये उस स्वर = स्वयं प्रकाश ब्रह्म को प्राप्त [विद्] करनेवाले होते हैं - ब्रह्मनिष्ठ होते हैं। ब्रह्मनिष्ठ गुरु ही गुह्य अन्धकार - हृदय के अज्ञान को रुद्ध करने में समर्थ होता है।

भावार्थ -

हम संसार में श्रेय का ही वरण करें। प्रेय का वरण कर भटकते ही न रह जाएँ।

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