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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 561
ऋषिः - वेनो भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
5
इ꣡न्द्रा꣢य सोम꣣ सु꣡षु꣢तः꣣ प꣡रि꣢ स्र꣣वा꣡पामी꣢꣯वा भवतु꣣ र꣡क्ष꣢सा स꣣ह꣢ । मा꣢ ते꣣ र꣡स꣢स्य मत्सत द्वया꣣वि꣢नो꣣ द्र꣡वि꣢णस्वन्त इ꣣ह꣢ स꣣न्त्वि꣡न्द꣢वः ॥५६१॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । सु꣡षु꣢꣯तः । सु । सु꣣तः । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व । अ꣡प꣢꣯ । अ꣡मी꣢꣯वा । भ꣣वतु । र꣡क्ष꣢꣯सा । स꣣ह꣢ । मा꣢ । ते꣣ । र꣡स꣢꣯स्य । म꣣त्सत । द्वयावि꣡नः꣢ । द्र꣡वि꣢꣯णस्वन्तः । इ꣣ह꣢ । स꣣न्तु । इ꣡न्द꣢꣯वः ॥५६१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय सोम सुषुतः परि स्रवापामीवा भवतु रक्षसा सह । मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनो द्रविणस्वन्त इह सन्त्विन्दवः ॥५६१॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राय । सोम । सुषुतः । सु । सुतः । परि । स्रव । अप । अमीवा । भवतु । रक्षसा । सह । मा । ते । रसस्य । मत्सत । द्वयाविनः । द्रविणस्वन्तः । इह । सन्तु । इन्दवः ॥५६१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 561
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
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विषय - वेनो भार्गवः
पदार्थ -
'वेन शब्द का अर्थ 'प्रबल इच्छावाला' है। प्रभु - प्राप्ति की प्रबल इच्छा होने के कारण यह (भार्गव:) = अपना उत्तम परिपाक करनेवाला है। यह 'वेन भार्गव' अपनी शक्ति को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि १. हे सोम! तू (सुषुतः) = उत्तम भोजनों से उत्पन्न हुआ हुआ (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए (परिस्रव) = मेरे अंग प्रत्यंग में परिस्रुत हो। मैं तेरा विनियोग सांसारिक सुखों की प्राप्ति में न करके प्रभु -प्राप्ति में करूँ। २. प्रसंगवश (अमीवा) = सब रोग व रोग के कीटाणु (अपभवतु) = दूर हों । वीर्यशक्ति रोगकृमियों का संहार करके मुझे रोगों से बचानेवाली हो। ३. (रक्षसा सह) = सब राक्षसी वृत्तियों के साथ मेरे रोग दूर भाग जाएँ। वीर्य के अपव्यय से जहां शरीर के अन्दर रोग उत्पन्न हो जाते हैं, वहाँ मन में भी अशुभ विचार आ जाते हैं। मनुष्य अपने रमण के लिए औरों का क्षय करने लगता है। यह रमण के लिए क्षय ही ‘रक्षस्’ वृत्ति कहलाती है। जीवन के संयमी होने पर हमारे अन्दर ये अशुभ वृत्तियाँ नहीं पनपतीं।
इस (ते) = तुझ सोम के (रसस्य) = रस का (द्वयाविनः) = प्रभु व लोक दोनों की ओर जाने की कामनावाले लोग (मा मत्सत्) = आनन्द प्राप्त न कर सकें। वस्तुतः संसार की कामना के साथ प्रभु का ध्यान सांसारिक वस्तुओं की वृद्धि के लिए ही होता है। यह सकाम ‘प्रभु का ध्यान' उसे विषयों से बचा नहीं पाता। क्या ये सांसारिक सुख-भोग सचमुच द्रविण हैं? वेद कहता है कि नहीं। (इह) = इस संसार में (इन्दवः) = सोम-कणों को अपने में सुरक्षित करके शक्तिशाली बननेवाले लोग ही ‘द्रविण-स्तवन्त: ' = उत्तम द्रविणवाले (सन्तु) = हों, उन्होंने ही उत्कृष्ट परमार्थ धन को कमाया है। द्वयावी पुरुषों को प्रभु से भोगादि सामग्री प्राप्त होती है [ परन्तु इन्दुओं को तो प्रभु ही प्राप्त हो जाते हैं। वेन की प्रबल कामना यही तो थी कि मैं प्रभु को पा सकूँ। आज उसकी यह इच्छा परिपूर्ण हुई है। उसने अपना परिपाक भी तो किया था।]
भावार्थ -
हममें प्रभु–प्राप्ति के लिए प्रबल कामना हो और उसके लिए हम अपना परिपाक करें।
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