Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 58
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
3
प्र꣢꣫ यो रा꣣ये꣡ निनी꣢꣯षति꣣ म꣢र्तो꣣ य꣡स्ते꣢ वसो꣣ दा꣡श꣢त् । स꣢ वी꣣रं꣡ ध꣢त्ते अग्न उक्थशꣳ꣣सि꣢नं꣣ त्म꣡ना꣢ सहस्रपो꣣षि꣡ण꣢म् ॥५८॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । यः । रा꣣ये꣢ । नि꣡नी꣢꣯षति । म꣡र्तः꣢꣯ । यः । ते꣣ । वसो । दा꣡श꣢꣯त् । सः । वी꣣र꣢म् । ध꣣त्ते । अग्ने । उक्थशँसि꣡न꣢म् । उ꣣क्थ । शँसि꣡न꣢म् । त्म꣡ना꣢꣯ । स꣣हस्रपोषि꣡ण꣢म् । स꣣हस्र । पोषि꣡ण꣢म् ॥५८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यो राये निनीषति मर्तो यस्ते वसो दाशत् । स वीरं धत्ते अग्न उक्थशꣳसिनं त्मना सहस्रपोषिणम् ॥५८॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । यः । राये । निनीषति । मर्तः । यः । ते । वसो । दाशत् । सः । वीरम् । धत्ते । अग्ने । उक्थशँसिनम् । उक्थ । शँसिनम् । त्मना । सहस्रपोषिणम् । सहस्र । पोषिणम् ॥५८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 58
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
Acknowledgment
विषय - उत्तम सन्तान किसे प्राप्त होती है?
पदार्थ -
(यः)= जो (मर्तः) = मनुष्य (राये)= धन के लिए (प्रनिनीषति)- औरों को भी प्रकर्षण ले-चलना चाहता है। यदि राष्ट्र-शासक इस विचारवाले होंगे तो वे चोरों को केवल कैद न करेंगे, अपितु उन्हें जेल में कोई शिल्प सिखाएँगे और मुक्ति पर उन्हें कार्य में लगाने की व्यवस्था करेंगे। एक गृहस्थ भी औरों को धन प्राप्ति योग्य कार्य सिखाने की दशा में थोड़ा-बहुत काम कर ही सकता है।
परन्तु ऐसी वृत्ति होने पर हमारे पास लोकहित के लिए ही धन जुट पाएगा और हमें अपने सुखों को तिलाञ्जलि देनी होगी, अतः मन्त्र कहता है कि (यः) = जो (ते) तुझे वसो हे सबको बसानेवाले प्रभो! (दाशत्) = आत्मसमर्पण कर देता है। अपनी मौज को समाप्त करके प्रभु की प्रजा के हित के कार्यों में जुटता है और उन कार्यों को करते हुए भी अभिमान नहीं करता कि अमुक पुरुष को बसाने में मेरा हाथ है। 'वसु' तो प्रभु हैं। बसानेवाले हम कौन? जो इस प्रकार निरभिमानता से आपके कार्य में लगा रहता है (सः) = वह (अग्ने) = हे आगे ले-चलनेवाले प्रभो! आपकी कृपा से (वीरम्) = पुत्र को (धत्ते) = प्राप्त करता है। कैसे पुत्र को? १.( उक्थशंसिनम्) = उक्थों = स्तुतियों के द्वारा प्रभु का कीर्तन करनेवाले को। जिस सन्तान का झुकाव प्रभु-कीर्तन की ओर होगा वह सन्तान पाप में न फँसेगी। प्रभु 'शुद्धम्, अपापविद्धम्' हैं, यह भी वैसा ही बना रहेगा। २.( त्मना सहस्रपोषिणम्) = यह अपने द्वारा हज़ारों का पोषण करनेवाला होगा। औरों का हित करनेवालों की सन्तान ऐसी ही होनी चाहिए।
इस प्रकार प्रभु के प्रति अर्पण करनेवालों की सन्तान, दूसरों का भला करनेवाली है। प्रभु करें कि हम स्वयं सदा औरों का उत्तम हित और उत्तम पोषण करनेवाले इस के ऋषि ‘सोभरि' बनें रहें।
भावार्थ -
लोकहित करनेवालों को उत्तम सन्तति की प्राप्ति होती है।
इस भाष्य को एडिट करें