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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 57
ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - यूप छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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ऊ꣣र्ध्व꣢ ऊ꣣ षु꣡ ण꣢ ऊ꣣त꣢ये꣣ ति꣡ष्ठा꣢ दे꣢वो꣡ न स꣢꣯वि꣣ता꣢ । ऊ꣣र्ध्वो꣡ वाज꣢꣯स्य꣣ स꣡नि꣢ता꣣ य꣢द꣣ञ्जि꣡भि꣢र्वा꣢घ꣡द्भि꣢र्वि꣣ह्व꣡या꣢महे ॥५७॥

स्वर सहित पद पाठ

ऊ꣣र्ध्वः꣢ । ऊ꣣ । सु꣢ । नः꣢ । ऊत꣡ये꣣ । ति꣡ष्ठ꣢꣯ । दे꣣वः꣢ । न । स꣣विता꣢ । ऊ꣣र्ध्वः꣢ । वा꣡ज꣢꣯स्य । स꣡नि꣢꣯ता । यत् । अ꣣ञ्जिभिः꣢ । वा꣣घ꣡द्भिः꣢ । वि꣣ह्व꣡या꣢महे । वि꣣ । ह्व꣡या꣢꣯महे ॥५७॥


स्वर रहित मन्त्र

ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता । ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे ॥५७॥


स्वर रहित पद पाठ

ऊर्ध्वः । ऊ । सु । नः । ऊतये । तिष्ठ । देवः । न । सविता । ऊर्ध्वः । वाजस्य । सनिता । यत् । अञ्जिभिः । वाघद्भिः । विह्वयामहे । वि । ह्वयामहे ॥५७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 57
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6;
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पदार्थ -

(सविता) = सब पदार्थों को उत्पन्न करनेवाला वह प्रभु (देवः न) = [ देवो दानात्] दाता की भाँति (न:)=हमारी सु (ऊतये) = उत्तम रक्षा के लिए (ऊर्ध्वः तिष्ठ)= ऊपर ही खड़ा है, अर्थात् पूर्ण तैयार है और वह (वाजस्य) = शक्ति का (सनिता) देनेवाला (ऊर्ध्वः) = सदा शक्ति देने के लिए उद्यत है। (यत्) = ज्योंहि हम (अञ्जिभिः) = [अञ्ज- व्यक्ति] विषय का स्पष्टीकरण करने में निपुण (वाघद्भिः) = ज्ञान को खूब धारण करनेवाले [ वह = to carry ] विद्वानों के साथ (विह्वयामहे) = विशेषरूप से बातें [ज्ञानचर्चाएँ] करते हैं [ ह्वेञ् शब्दे] तथा उनके साथ स्पर्धा करते हैं, उनसे भी आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील होते हैं [ ह्वेञ् स्पर्धायाम्]। ('अति समं क्राम') बराबरवाले से आगे लाँघ जाओ-इस वेद - वाक्य के अनुसार यह स्पर्धा अचित ही है। संसार का नियम है 'उन्नति या अवनति' [Either progres or regres], अतः हम आगे बढ़ेंगे तो ठीक है, अन्यथा अवनत हो जाएँगे। विद्वानों की स्पर्धा में आगे बढ़ने पर ही हम प्रभु की रक्षा के पात्र होंगे।

मानव जीवन के निर्माण में दो बातें आवश्यक हैं। एक बीज, दूसरी परिस्थिति। बीज हमें माता-पिता से प्राप्त होता है, परन्तु परिस्थिति का निर्माण हम स्वयं करते हैं। बीज की अपेक्षा परिस्थिति का जीवन निर्माण में तीन गुणा भाग है, अतः अपने भाग्य का निर्माण बहुत कुछ मनुष्य के अपने ही हाथ में है। 'Man is the architect of his own fate.' यह कहावत ठीक ही है। उत्तम परिस्थिति हमें उत्तम बनाएँगी, अधम परिस्थिति में हम अधम बन जाएँगे।

भावार्थ -

ज्ञानियों के सम्पर्क में रहकर हम प्रभु की रक्षा व शक्ति प्राप्ति के पात्र बनें। कण-कण करके ज्ञान व शक्ति का सञ्चय करनेवाले हम इस मन्त्र के ऋषि 'कण्व' बनें।

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