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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 585
ऋषिः - ऋजिश्वा भारद्वाजः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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य꣢ उ꣣स्रि꣢या꣣ अ꣢पि꣣ या꣢ अ꣣न्त꣡रश्म꣢꣯नि꣣ नि꣡र्गा अकृ꣢꣯न्त꣣दो꣡ज꣢सा । अ꣣भि꣢ व्र꣣जं꣡ त꣢त्निषे꣣ ग꣢व्य꣣म꣡श्व्यं꣢ व꣣र्मी꣡व꣢ धृष्ण꣣वा꣡ रु꣢ज । ओ꣡३म् व꣣र्मी꣡व꣢ धृष्ण꣣वा꣡ रु꣢ज ॥५८५॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । उ꣣स्रि꣡याः꣢ । उ꣣ । स्रि꣡याः꣢꣯ । अ꣡पि꣢꣯ । याः । अ꣣न्तः꣢ । अ꣡श्म꣢꣯नि । निः । गाः । अ꣡कृ꣢꣯न्तत् । ओ꣡ज꣢꣯सा । अ꣢भि꣣ । व्र꣣ज꣢म् । त꣣त्निषे । ग꣡व्य꣢꣯म् । अ꣡श्व्य꣢꣯म् । व꣣र्मी꣢ । इ꣣व । धृष्णो । आ꣢ । रु꣣ज । ओ꣢३म् । व꣣र्मी꣡व꣢धृष्ण꣣वा꣡रु꣢ज ॥५८५॥
स्वर रहित मन्त्र
य उस्रिया अपि या अन्तरश्मनि निर्गा अकृन्तदोजसा । अभि व्रजं तत्निषे गव्यमश्व्यं वर्मीव धृष्णवा रुज । ओ३म् वर्मीव धृष्णवा रुज ॥५८५॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । उस्रियाः । उ । स्रियाः । अपि । याः । अन्तः । अश्मनि । निः । गाः । अकृन्तत् । ओजसा । अभि । व्रजम् । तत्निषे । गव्यम् । अश्व्यम् । वर्मी । इव । धृष्णो । आ । रुज । ओ३म् । वर्मीवधृष्णवारुज ॥५८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 585
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 11;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 11;
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विषय - प्रभुरूपी कवचवाला
पदार्थ -
(गाः) = वेदवाणियों को (निर् अकृन्तत्) = खूब विश्लिष्ट करता है, एक-एक शब्द को छाँट-छाँटकर उसमें निहित भाव को देखने का प्रयत्न करता है। यह वेदवाणियों का तर्क ऋषि के द्वारा अध्ययन करता है। तर्क से अनुसन्धान करता हुआ यह उन (उस्त्रिया:) = ज्ञान की किरणों को प्राप्त करता है (ये) = जो (अपि या:) = उस प्रभु को प्राप्त करानेवाली हैं। ये ज्ञान-किरणें वे हैं जो अन्तः (अश्मनि) = [अश्मा भवतु नस्तनू:] आङ्गिरस के पाषाणतुल्य दृढ़ शरीर के अन्दर निवास करती हैं। ऋजिष्वा का यह ज्ञान (ओजसा) = ओज के साथ होता है।
इस प्रकार का जीवन बना सकना इसके लिए इसलिए सम्भव हुआ है कि यह व्(रजम्) = एक बाड़े को (अभितलिषे) = विस्तृत करता है, जो बाड़ा (गव्यं) = ज्ञानेन्द्रियरूप गौओं को घेरने के लिए है, और जो बाड़ा (अश्व्यम्) = कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को घेरता है। यह इन्द्रियों को उस उस विषय से रोककर आत्मवश करने का प्रयत्न करता है। इस जितेन्द्रियता ने ही इसे ऋषि का मस्तिष्क तथा मल्ल का शरीर प्राप्त कराया है। अब यह आङ्गिरस ज्ञान का कवच [ब्रह्म वर्म ममान्तरम्] पहनकर कामादि शत्रुओं का पूर्ण संहार करता है । (वर्मी इव) = कवचवाले की भाँति हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले ! (आरुज) = तू इनका पराजय कर डाल। ‘परन्तु इस विजय का कहीं तुझे गर्व न हो जाए, अतः (ओ३म् वर्मीव) = उस प्रभुरूप कवच को धारण करनेवाला बनकर (धृष्णो) = हे धर्षण करनेवाले! (आरुज) = शत्रुओं को भङ्ग कर, अर्थात् इस विजय को तू अपनी विजय मत समझ बैठ | यह सब उस प्रभु की शक्ति व कृपा से ही हुआ है ऐसा जान ।
भावार्थ -
मैं प्रभु को अपना कवच बनाकर अन्तः शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दूँ। मेरा ज्ञान ओजस्विता से युक्त हो । वज्र-तुल्य दृढ़ शरीर मेरी ज्ञान की किरणों का अधिष्ठान हो ।
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