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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 622
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - द्यावापृथिवी
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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म꣡न्ये꣣ वां द्यावापृथिवी सु꣣भो꣡ज꣢सौ꣣ ये꣡ अप्र꣢꣯थेथा꣣म꣡मि꣢तम꣣भि꣡ योज꣢꣯नम् । द्या꣡वा꣢पृथिवी꣣ भ꣡व꣢तꣳ स्यो꣣ने꣡ ते नो꣢꣯ मुञ्चत꣣म꣡ꣳह꣢सः ॥६२२॥
स्वर सहित पद पाठम꣡न्ये꣢꣯ । वा꣣म् । द्यावापृथिवी । द्यावा । पृथिवीइ꣡ति꣢ । सु꣣भो꣡ज꣢सौ । सु꣣ । भो꣡ज꣢꣯सौ । ये꣡इति꣢ । अ꣡प्र꣢꣯थेथाम् । अ꣡मि꣢꣯तम् । अ । मि꣣तम् । अभि꣢ । यो꣡ज꣢꣯नम् । द्या꣡वा꣢꣯पृथिवी । द्या꣡वा꣢꣯ । पृथिवीइ꣡ति꣢ । भ꣡व꣢꣯तम् । स्यो꣣नेइ꣡ति꣢ । ते꣡इति꣢ । नः꣣ । मुञ्चतम् । अँ꣡ह꣢꣯सः ॥६२२॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्ये वां द्यावापृथिवी सुभोजसौ ये अप्रथेथाममितमभि योजनम् । द्यावापृथिवी भवतꣳ स्योने ते नो मुञ्चतमꣳहसः ॥६२२॥
स्वर रहित पद पाठ
मन्ये । वाम् । द्यावापृथिवी । द्यावा । पृथिवीइति । सुभोजसौ । सु । भोजसौ । येइति । अप्रथेथाम् । अमितम् । अ । मितम् । अभि । योजनम् । द्यावापृथिवी । द्यावा । पृथिवीइति । भवतम् । स्योनेइति । तेइति । नः । मुञ्चतम् । अँहसः ॥६२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 622
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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विषय - उत्तम पालक द्यावापृथिवी
पदार्थ -
व्यक्ति जितना-जितना विचारता है उतना - उतना सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में प्रभु की रचना-कौशल की महिमा का अनुभव करता है। उसे प्रत्येक व्यवस्था में प्रभु की कृपा दृष्टिगोचर होने लगती है। वह कहता है कि हे (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोको! तदन्तर्गत सब पदार्थो! (वाम्) = आपको (सुभोजसौ) = बड़ा उत्तम पालन करनेवाला (मन्ये) = मानता हूँ। प्रकाश व वृष्टि के द्वारा द्युलोक पृथिवी में उन अन्नों व फूल-फलों को जन्म देता है, जिनसे हमारा अत्युत्तम पोषण होता है। ये ‘द्यावापृथिवी' हमारे ‘माता-पिता' ही हैं। माता-पिता जैर पुत्र का पूर्ण पोषण करते हैं उसी प्रकार ये पृथिवी और द्युलोक हमारा पोषण करते हैं। इनमें हमारे निवास के लिए किसी प्रकार की कमी हो' ऐसी बात नहीं। (ये) = जो (अमितम्) = अनन्त (अभियोजनम्) = कोसों तक चारों ओर (अप्रथेथाम्) = फैले हुए हैं। 'हमारे लिए' कम पड़ जाएँगे ऐसी आशंका नहीं है। पृथिवी 'वसुन्धरा' है- सभी के लिए पर्याप्त वसु इसमें विद्यमान है। यह ‘रत्नगर्भा' है - यहाँ रत्नों की कोई कमी है?
‘वामदेव गौतम’ प्रार्थना करता है कि (द्यावापृथिवी) = द्युलोक और पृथिवीलोक (स्योने) = हमें सुख देनेवाले (भवतम्) = हों।
(ते) = वे द्यावापृथिवी (न:) = हमें (अहंसः) = पाप व कष्ट से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें। जब अज्ञानवश हम इनमें फँस जाते हैं, इनका अन्याय से संग्रह करने लगते हैं और इनके अतियोग में ग्रसित हो जाते हैं तो हम दुःखभागी हुआ करते हैं। सुख देनेवाले द्यावापृथिवी हमारे दुःख का कारण हो जाते हैं, परन्तु यदि हम 'वामदेव' सुन्दर दिव्य गुणोंवाले 'गोतम' = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बनेंगे तो कभी भी अंहस् कष्ट के भागी न होंगे। हम द्यावापृथिवी को 'सुभोजसौ'=उत्तम पालन करनेवालों के रूप में ही देखें और इनकी अनन्तता का ध्यान करते हुए इनमें परस्पर शान्ति से निवास करनेवाले बनें। ये इतने विशाल हैं - यहाँ सभी के लिए स्थान है - लड़ने की आवश्यकता ही क्या ?
भावार्थ -
द्यावापृथिवी की विशालता और भोग-सामग्री का हम ध्यान करें।
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