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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 643
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - 0
4
ए꣣वा꣢꣫ हि श꣣क्रो꣢ रा꣣ये꣡ वाजा꣢꣯य वज्रिवः । श꣡वि꣢ष्ठ वज्रिन्नृ꣣ञ्ज꣢से꣣ म꣡ꣳहि꣢ष्ठ वज्रिन्नृ꣣ञ्ज꣢स꣣ । आ꣡ या꣢हि꣣ पि꣢ब꣣ म꣡त्स्व꣢ ॥६४३
स्वर सहित पद पाठए꣣वा꣢ । हि । श꣣क्रः꣢ । रा꣣ये꣢ । वा꣡जा꣢꣯य । व꣣ज्रिवः । श꣡वि꣢꣯ष्ठ । व꣣ज्रिन् । ऋञ्ज꣡से꣢ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठ । व꣣ज्रिन् । ऋञ्ज꣡से꣢ । आ । या꣣हि । पि꣡ब꣢꣯ । म꣡त्स्व꣢꣯ ॥६४३॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा हि शक्रो राये वाजाय वज्रिवः । शविष्ठ वज्रिन्नृञ्जसे मꣳहिष्ठ वज्रिन्नृञ्जस । आ याहि पिब मत्स्व ॥६४३
स्वर रहित पद पाठ
एवा । हि । शक्रः । राये । वाजाय । वज्रिवः । शविष्ठ । वज्रिन् । ऋञ्जसे । मँहिष्ठ । वज्रिन् । ऋञ्जसे । आ । याहि । पिब । मत्स्व ॥६४३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 643
(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 3
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 3
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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विषय - शक्ति व दान
पदार्थ -
गत मन्त्र में प्रभु ने जीव से कहा था कि (द्युम्नाय न इषे) = तुझे ज्ञान- दीप्ति के लिए भेजा गया है न कि खाने-पीने के लिए। अब प्रभु कहते हैं कि (एवाहि) = निश्चय से इसी मार्ग पर चलने से ही तू (शक्रः) = शक्तिशाली बनेगा। खाने-पीने को जीवन का लक्ष्य बना देने पर तो तू भोगों में फँसकर जीर्णशक्ति हो जाएगा। यह ज्ञान का मार्ग ही तुझे (राये) = उस धन के लिए ले-चलेगा जो सदा लोकहित के लिए दिया जाता है। यही मार्ग (वाजाय) = तुझे शक्ति- सम्पन्न बनानेवाला होगा। उस दिन तू सचमुच वज्रतुल्य देहवाला होकर ('वज्रिवः) = इस सम्बोधन के योग्य होगा।
प्रभु इस वज्रतुल्य देहवाले जीव से कहते हैं कि तू वज्रिन् और (शविष्ठ) = अत्यन्त शक्तिशाली बनकर (ऋञ्जसे) = मेरी आराधना करता है।( मंहिष्ठ वज्रिन् ऋञ्जसे) = तू खूब दाता व वज्रतुल्य बनकर ही मुझे अलंकृत करता है- तू मेरा सच्चा पुत्र होता है। एवं, प्रभु की आराधना ‘शक्तिशाली बनकर, दानशील बनने में ही है। प्रभु जीव से कहते हैं कि- (आयाहि) = आ, इधर-उधर मत भटक । नाना प्रकार की वासनाओं में भटकने की बजाए अपनी बुद्धि को समाहित कर। इस प्रकार तू अपने में शक्ति का (पिब) = पान कर और इस शक्ति को अपने अन्दर ही खपाकर (मत्स्व) = आनन्द का लाभ कर ।
भावार्थ -
हम शक्तिशाली व उत्तम दाता बनकर प्रभु के उपासक बनें।
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