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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 66
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
6
इ꣣म꣢꣫ꣳ स्तो꣣म꣡मर्ह꣢ते जा꣣त꣡वे꣢दसे र꣡थ꣢मिव꣣ सं꣡ म꣢हेमा मनी꣣ष꣡या꣢ । भ꣣द्रा꣢꣫ हि नः꣣ प्र꣡म꣢तिरस्य स꣣ꣳस꣡द्यग्ने꣢꣯ स꣣ख्ये꣡ मा रि꣢꣯षामा व꣣यं꣡ तव꣢꣯ ॥६६॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣म꣢म् । स्तो꣡मम꣢꣯म् । अ꣡र्ह꣢꣯ते । जा꣣त꣡वे꣢दसे । जा꣣त꣢ । वे꣣दसे । र꣡थ꣢꣯म् । इ꣣व । स꣢꣯म् । म꣣हेम । मनीष꣡या꣢ । भ꣣द्रा꣢ । हि । नः꣣ । प्र꣡म꣢꣯तिः । प्र । म꣣तिः । अस्य । सँस꣡दि꣢ । सम् । स꣡दि꣢꣯ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । स꣣ख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । मा । रि꣣षाम । वय꣢म् । त꣡व꣢꣯ ॥६६॥
स्वर रहित मन्त्र
इमꣳ स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया । भद्रा हि नः प्रमतिरस्य सꣳसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥६६॥
स्वर रहित पद पाठ
इमम् । स्तोममम् । अर्हते । जातवेदसे । जात । वेदसे । रथम् । इव । सम् । महेम । मनीषया । भद्रा । हि । नः । प्रमतिः । प्र । मतिः । अस्य । सँसदि । सम् । सदि । अग्ने । सख्ये । स । ख्ये । मा । रिषाम । वयम् । तव ॥६६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 66
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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विषय - यह स्तोम = स्तुति
पदार्थ -
(इमं स्तोमम्) = इस स्तुति को, जिसका गत मन्त्र में तीन ज्योतियों के समविकास के रूप में उल्लेख हुआ है, हम (अर्हते)- प्रशंसनीय प्रभु के लिए (संमहेमा) = संस्कृत करते हैं। इन तीनों ज्योतियों का विकास हमने क्या किया है ? इनका विकास करनेवाला तो वह प्रभु ही है। यह सब प्रशंसा उसी की है। जहाँ-जहाँ विजय व सफलता है, उसका करनेवाला वही है, क्योंकि वह (जातवेदसे)=प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान है [जाते जाते विद्यते] । नासमझ व्यक्ति इन विजयों को अपना समझा गर्वान्वित हो जाया करते हैं, परन्तु समझदार इन विजयों को अपना न समझ प्रभु का ही जानते हैं। इसी से मन्त्र में कहा है कि (मनीषया) = बुद्धि से हम इस स्तुति को उस प्रशंसनीय, सबमें विद्यमान प्रभु के लिए उसी प्रकार संस्कृत करते हैं इव जैसे एक बढ़ई (रथम्)=रथ को ।
जिस प्रकार रथ हमें यात्रा के अन्त तक पहुँचाता है, उसी प्रकार यह प्रभु की स्तुति भक्त की जीवन-यात्रा के लिए रथ का काम देती है। (अस्य) = इस प्रभु की (संसदि)=समीपता में सम्यक् बैठने से (नः) = हमारी (प्रमतिः) = बुद्धि (हि) = निश्चय से भद्रा-कल्याणी, शुभ विचारोंवाली बनी रहती है। अशुभ विचार आते ही मनुष्य व्यसनों में फँस यात्रा की प्रगति को समाप्त कर लेता है और उसकी महान् हानि [महती विनष्टि:] हो जाती है, परन्तु (अग्ने)=हे प्रभो! वयम् - हम तो (तव) - तेरी सख्ये - मित्रता में (मा)=मत (रिषामा) - हिंसित हों। =
प्रभु की मित्रता में आसुर वृत्तियों को हमपर आक्रमण करने का साहस ही कैसे हो सकता है? प्रभु-सम्पर्क से शक्तिशाली बन हम इन आसुर वृत्तियों के कुचलनेवाले इस मन्त्र के ऋषि ‘कुत्स’ [कुथ हिंसायाम्] बनते हैं। शक्तिशाली होने से 'आङ्गिरस’ होते हैं।
भावार्थ -
हम सदा प्रभु की स्तुति करें, उसी के सम्पर्क में रहें, उसी की मित्रता प्राप्त करें।
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