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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 704
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
ऊ꣣र्जो꣡ नपा꣢꣯त꣣ꣳ स꣢ हि꣣ना꣡यम꣢꣯स्म꣣यु꣡र्दाशे꣢꣯म ह꣣व्य꣡दा꣢तये । भु꣢व꣣द्वा꣡जे꣢ष्ववि꣣ता꣡ भुव꣢꣯द्वृ꣣ध꣢ उ꣣त꣢ त्रा꣣ता꣢ त꣣नू꣡ना꣢म् ॥७०४॥
स्वर सहित पद पाठऊ꣡र्जः꣢ । न꣡पा꣢꣯तम् । सः । हि꣣न꣢ । अ꣣य꣢म् । अ꣣स्म꣢युः । दा꣡शे꣢꣯म । ह꣣व्य꣢꣯दातये । ह꣣व्य꣢ । दा꣣तये । भु꣡व꣢꣯त् । वा꣡जे꣢꣯षु । अ꣣वि꣢ता । भु꣡व꣢꣯त् । वृ꣣धे꣢ । उ꣣त꣢ । त्रा꣣ता꣢ । त꣣नू꣡ना꣢म् ॥७०४॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्जो नपातꣳ स हिनायमस्मयुर्दाशेम हव्यदातये । भुवद्वाजेष्वविता भुवद्वृध उत त्राता तनूनाम् ॥७०४॥
स्वर रहित पद पाठ
ऊर्जः । नपातम् । सः । हिन । अयम् । अस्मयुः । दाशेम । हव्यदातये । हव्य । दातये । भुवत् । वाजेषु । अविता । भुवत् । वृधे । उत । त्राता । तनूनाम् ॥७०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 704
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - प्रभु तो हमें चाहते ही हैं
पदार्थ -
इस मन्त्र में शंयु कहता है कि (हव्यदातये) = सब उत्तम पदार्थों के देनेवाले उस प्रभु के लिए (दाशेम) = हम अपने को दे डालें— उसके प्रति अपना समर्पण कर दें। वे प्रभु (ऊर्ज: न पातम्) = शक्ति को कभी नष्ट न होने देनेवाले हैं। प्रभु के प्रति अपना अर्पण करने से हमारी शक्ति सदा बनी रहेगी। (सः हि) = वे प्रभु निश्चय से (नायम्) = [नी प्रापणे] हमें आगे ले जानेवाले हैं। प्रभु के प्रति अपना पूर्ण अर्पण करके यह प्रभु कृपा से आगे और आगे बढ़ता चलता है ।
(अस्मयुः) = वे प्रभु हमें चाहते हैं - हमारे साथ प्रेम रखते हैं। हम प्रभु को चाहें या ना चाहें, परन्तु वे प्रभु तो हमारे साथ प्रेम करते ही हैं । (वाजेषु) = संसार के संग्रामों में वे प्रभु ही (अविता भुवत्) = हमारे रक्षक होते हैं, अथवा (वाजेषु) = शक्तियों के प्राप्त कराने में वे प्रभु ही (अविता) = [अव्= भागदुघे] उत्तम भाग प्रदान करनेवाले भुवत् होते हैं । शक्ति देकर (वृधे भुवत्) = सब प्रकार से हमारी वृद्धि के लिए होते हैं (उत) = और (तनूनाम् त्राता) = हमारे शरीरों के रक्षक भी तो प्रभु ही हैं। उस प्रभु की हमारे साथ कितनी नि:स्वार्थ प्रीति है। हमारी कितनी बड़ी कृतघ्नता होगी यदि हम इस प्रभु को भूल जाएँ ।
भावार्थ -
प्रभु तो हमें चाहते हैं, हम भी प्रभु और केवल प्रभु को ही को चाहनेवाले बनें ।
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